ग़ज़ल-9
यों भटक रहे हैं हम भेद-भाव का भटकन पहनकर
जैसे भटक रही हों रूहें अलग-अलग बदन पहनकर
मस्त छाँव में पथिकों की थकान यही सोचती रही
पेड़ कैसे हरता होगा पीर धूप का तपन पहनकर
शीतल आलिंगन में मद-मस्त रहकर भी नर-भुजंग
क्यों नही त्यागता है विष सुगन्धित चन्दन पहनकर
बस मृत्यु ही एक शाश्वत सत्य है यह जानकर भी
क्यूँ ड़रते रहते हैं हम लोग भय का कफ़न पहनकर
कैसे मान लूँ ‘शशि’अब मंज़िल मिल सकती नहीं
राहें पुकार रही हैं ठ़ोकरों का आवरण पहनकर
लेखक- डाo सच्चितानन्द 'शशि'