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झुग्गी-झुग्गी झोपड़ के तरकश में

DIGVIJAY NATH DUBEY 24 May 2023 कविताएँ समाजिक #दिग्दर्शन 5131 0 Hindi :: हिंदी

कहीं सड़क पर कहीं वीराने 
अलिशान भवन बनवाया 
जिसको पत्तल से ढककर के
कपड़े का दरवाजा लगवाया 
एक नही सौ दो सौ होंगे
ऊंचे बंगले वाले जन 
छोड़ दिया है जिनको सबने
जीवन प्रत्याशा से वंचन
फिर भी चेहरा खिला खिला कर 
कैसे कोई हस लेता है
झुग्गी झोपड़ के तरकश पर 
कैसे कोई रह लेता है 

पूष की रात की ठंडी ठिठुरन 
यही कही पर सो जाते हैं
रात के काले दुश्मन दल से
दल बल से भी लड़ जाते हैं
इनका एक नही ठिकाना 
कल यहां गिरे कल कहा गिरे
कही प्रशासन की लाठी से
तोड़ तोड़कर जहा गिरे
लोगों की नजरों में इनकी 
दशा समझ में न आती है
शहर की शोभा बिगड़ गई है 
हर कोई ये कह लेता है 
झुग्गी झोपड़ के तरकश में
कैसे कोई रह लेता है

दिग्दर्शन !

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