Santosh kumar koli 18 Apr 2024 कविताएँ समाजिक बेशर्म 155 0 Hindi :: हिंदी
कई- कई का, है बेशर्मी में सार। कर बेहयाई, समझे चतुराई, बनते डेढ़ होशियार। उसकी तो है उतरी हुई, औरों की झट ले उतार। एक नकटा, सौ पर भारी। किधर ही घूम जाए, ढीली गरारी। कहां झूला, कहां मयारी। पानी डूबती, सेही मारी। बेशर्मी का, नहीं गैला। नकटा पटेल, किसी का सामान, किसी का थैला। हक़ीक़त कुछ नहीं, सिर्फ़ खेल -खेला। नीम चढ़ा, वह भी करेला।