Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक सार्थक जीवन 15040 0 Hindi :: हिंदी
था कर गुज़रने का जज़्बा, ज़िंदगी पल भर की। अग्नि में तपकर एक लोहा, फाल बन गया हल की। धरती के दामन के संग, कृषक का हमराही। घिस -घिसके घिस गया, चुका गया पाई-पाई। सहमा, दुबका, विकल दूसरा, नष्ट हो जाने का डर। न जी सका, न मर सका, कशमकश थी इस क़दर। डर-डरके, मर-मरके जीना, इस लोहे की थी नियती। ज़ंग संग भंग हो गया, आया जैसे ही जाने की पाया गति। कम जीओ सद्कर्म करो, यही जीवन है माना। जीओ तो खुलके जीओ, कल किसने देखा, किसने जाना? कर्म करते मर जाना, अच्छा है गरियार से। ऐसा जीवन क्या ढोना, मर जाए दब निज भार से।