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बचपन के दिन

Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक बचपन के दिन 38208 0 Hindi :: हिंदी

मन के सच्चे, मनमौजी, अलमस्त बेगाना। नीचे सोते, बिस्तर से उठते, मां का जबरन नहलाना।
मिठाई मन की मुराद, खाने की न देर।
खिलौना पूंजी आगे, कहां अड़े कुबेर।
ज़िद के आगे घोड़ी बन, पापा करें हिन-हिन।
कोई, लौटा दे वो दिन।
मज़बूत कंधे पर बैठ, मेला देखने जाना।
बनियान बाजू, पट्टे की चड्डी, फूले नहीं समाना।
रूठकर मिट्टी में सोना, फीके सारे सेज।
नाक भी बेबाक बहे, मिट्टी खाने से न परहेज़।
स्वर्ग भी सूना लगे, मां आंचल के बिन।
कोई, लौटा दे वो दिन।
परिवार के आंखों का, तारा भविष्य का सहारा।
कितना अच्छा लगता था, पूछ्ना एक ही बात तिबारा।
मेरा परिवार से, कठपुतली का नाता।
मेरे खाने से ही, उनका पेट भर जाता।
लड़खड़ाते पांवों को, मां संभालती गिन-गिन।
कोई, लौटा दे वो दिन।
काका, बाबा बोलते, बेझिझक, बेसोच।
जिनको बोलने में आज, होता है कितना संकोच।
नहीं खिलाना ही था, मसला दिल्ली-सिंध।
वो मां, मां की अदालत, वो ताज़ी रात हिंद।
खूब डराती थी कहानी, भूत व‌ जिन।
कोई, लौटा दे वो दिन।
कोई, लौटा दे वो दिन।

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