Uday singh kushwah 02 Jul 2023 कविताएँ समाजिक गूगल याहू बिंग 4645 0 Hindi :: हिंदी
अक्सर मैं दु:खी हो जाती हूँ , जब किसी दूसरी औरत को, देखकर तुम्हारी आंखें विस्तृत, हो जाया करतीं हैं तब....! या फिर मेरी पीठ पर गढ़तीं हैं , निगाहें रास्ते चलते पीछे से ....! अपने आप को पाती हूं परितंत्र , कभी बातों से, कभी व्यवघातों से , कभी लातों से..! तुम को समर्पित करदी है , देह और रोम रोम पर.....! तुम्हारे हृदय में अपने लिए बना पायीं हूं जगह कुछ खुद के लिए. ..! या यूं ही बसर कर रहीं हूं जिंदगी , तुम्हारे साथ बीत जाने के लिए. ...! उपजा रहीं हूँ तुम्हारे विस्तृत वंश को, अपने ही खून के कण कण से...! कितना कठिन है दूसरे की पेंटिग पर अपना नाम लिखना....! मेरे ही सृजन पर तुम्हारा नाम, कुछ अजीब सा नहीं लगता ....! कोमल संवेदनाओं पर, कितना कठोर व्याघात, टूटते तारे- सा उल्कापात...! पूज्यनीय प्रतिमा सी, सुन्दर सकल खंडित मूर्ती-सी मैं, निर्माल्य में पडी़ रही....! उदय सिंह कुशवाहा ग्वालियर मध्यप्रदेश