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शिक्षा का उद्देश्य

DINESH KUMAR SARSHIHA 30 Mar 2023 आलेख समाजिक #Education 9491 0 Hindi :: हिंदी

शिक्षा का उद्देश्य है,विद्यार्थी को योग्य बना देना|
योग्यता दर्शाने के लिए अनेक बिंदुओं को स्पष्ट किया जा सकता है,व्यक्ति ज्ञान संपन्न,आत्म निर्भर और आत्मनियंत्रित बने।जीवन के चरित्र निर्माण के लिए ज्ञान का विकास आवश्यक है।ज्ञान संपन्न बनना अच्छी बात है किंतु ज्ञान के साथ-साथ आचरण का भी विकास होना चाहिए।
आचारविहीन व्यक्ति विद्वान बन जाने के बाद भी उस प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता है जो एक सामान्य व्यक्ति सहजता से प्राप्त कर लेता है।विद्यार्थी में ईमानदारी के प्रति निष्ठा जाग जाए,विनम्रता का भाव जाग जाए और नशा मुक्त जीवन जीने का संकल्प जाग जाए तो वह एक श्रेष्ठ नागरिक तथा आचार संपन्न नागरिक बन सकता है।पिछले कई साल से बोर्ड में पास होने वाले छात्र हैं जो अंको के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं।छात्रों ने विभिन्न परीक्षा में शत प्रतिशत अंक हासिल कर नया शिखर छू लिया है।इस उपलब्धि के लिए अनेक अध्यापक तथा अभिभावक बधाई के पात्र हैं परंतु कुछ विचार,सवाल भी मुंह बाए खड़े हैं जिन को नजरअंदाज करना मुश्किल है।क्या नई पीढ़ी अपने अंग्रेज पूर्वजों से कहीं अधिक बुद्धिमान हैं
या फिर परीक्षा का स्तर इतना गिर गया है कि 99% हासिल करना आसान हो गया है।औसत छात्र भी इम्तिहान पहले दर्जे में पास करते हैं और कॉलेज में दाखिले के वक्त 90% अंक वाले भी दर-दर मारे मारे भटकते हैं।कुछ अव्वल दर्जा वाले पत्राचार से ही आगे की पढ़ाई जारी  रखने को मजबूर होते हैं।एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार का मानना है कि सबसे बड़ा दोष परीक्षा प्रणाली  का ही है जिसमें बहुविकल्पी प्रश्न पूछे जाते हैं।चंद मॉडल उत्तर रटने वाले छात्र ही सर्वाधिक अंक पाते हैं।साल भर पढ़ाई परीक्षा की चुनौती का सामना करने के लिए करवाई जाती है।रटंत विद्या कहाँ तक नौका पार लगा सकता है।ना तो विषय वस्तु से छात्र छात्राओं का वास्ता रह गया है न ही मौलिकता,सृजनात्मकता ,प्रतिभा से रोजमर्रा की जिंदगी के लिए परम आवश्यक व्यावहारिक ज्ञान की चिंता भी किसी को ही बची है।सहिष्णुता,मानवीय संवेदना,सहानुभूति ,नैतिकता का स्कूली शिक्षा से कोई नाता नहीं रह गया है।हर परीक्षा अगली परीक्षा की तैयारी वाली सीढ़ी की तरह एक पायदान बन गई है।आगे बढ़ने के लिए अधिकतम नंबर उठाने के लिए कोचिंग ट्यूशन ही डूबते का सहारा है।सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि प्राथमिक स्तर से लेकर अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की प्रतियोगिता तथा शोध के लिए प्रत्याशियों को कसौटी पर कसने के लिए भी
बहुविकल्पी प्रश्न  ही इम्तिहान में आते हैं।नीट-आईआईटी का दाखिल-कहीं कोई नाव नहीं ,जिसका सहारा परीक्षा की वैतरणी को पार कराये।कुछ मुद्दे और भी हैं जिन्हें हम अनदेखा करते हैं,क्या स्कूली शिक्षा की दुर्गति के लिए सरकारी तथा निजी स्कूलों के बीच भेदभाव करने वाली जाती व्यवस्था सरीखी मानसिकता जिम्मेदार नहीं है?वंचित,शोषित तबके के बच्चे ही प्रांतीय बोर्डों की मान्यता वाले सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं।यही अध्यापकों की जिंदगी भी सबसे दयनीय नजर आती हैं।फिर नंबर आता है सीबीएसई के पाठ्यक्रम के अनुसार संचालित निजी महंगे तथा केंद्रीय,सैनिक विद्यालयों का ।कुछ समय पहले तक इनके ऊपर विराजते थे मशहूर पब्लिक स्कूल जिनका आम जनता से कोई वास्ता न था।दून स्कूल,मेयो कॉलेज,सेंट पॉल,लव डेल,लॉरेंस स्कूल आदि।सर्वश्रेष्ठ की सूची में सबसे ऊपर
"इंटरनेशनल बेकोलरेट"की तैयारी करवाने वाले स्कूल हैं
जिनके छात्र  विदेशी विश्वविद्यालयों में बिना झंझट प्रवेश ले सकते हैं।शासक वर्ग इसलिए न तो आम स्कूलों की लाइलाज बीमारी से चिंतित हैं नहीं आसमान छूते अंकों की महामारी से।समस्या तो उन किशोर किशोरियों की है जो 98-99 प्रतिशत अंक हासिल नहीं कर सकते।उनके मन में भयंकर हीनता की भावनाएं जड़े जमाने लगती है।अगर विद्यार्थी अच्छे होंगे तो आशा की जा सकती है कि हमारे देश का भविष्य भी अच्छा होगा।कोई भी विद्यार्थी बुरा नही होता,बस उसकी मौलिक विशेषताओं की परख की जानी चाहिए।

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