Rupesh Singh Lostom 30 Mar 2023 कविताएँ हास्य-व्यंग अच्छा मैं दर्पण हूँ 14207 0 Hindi :: हिंदी
जब भी मैं देखता हूँ तुम्हे तो खुद को भी देख लेता हूँ पर ये क्या तेरी प्रतिमा और मेरा आकार तेरा चेहरा और मेरा ऐहसास गरम गरम सांसे और अदभुत आभास मुझमे तेरी परछाई क्यों अच्छा मैं दर्पण हूँ मैं सब को और सब देखता हूँ मुझसे सरमाते हो और इतराते भी हो नखरे दिखते हो होठो तले उंगलियों को दबाते सबरते और सिंगार करते हो पर मुझे क्यों बद सूरत बना देते हो कभी बिंदी तो कभी सिंदूर मेरे माथे पे चिपका देते हो कभी कभी तो हद करते हो मुझे सरम आती है तेरी हरकतों से जब मेरे सामने हि अपना यौवन निहारती हो मैं आईना हूँ महसूस मैं भी करता हूँ