ग़ज़ल-6
वो ज़ो मेरे दर्द-ए-दिल को जगाता है बराबर
दिल उसी नज़्म को क्यूँ गुनगुनाता है बराबर
जहन से चलता है दिल तक फ़िर दिल से आँखों तक
थककर इस सफ़र में अश्क बिख़र जाता है बराबर
घर का बूढ़ा आइना जो साँसों में टँगा है
तस्वीर अच्छी हो या बुरी,बताता है बराबर
माँ-बाप का गुज़र तो रूखे-सूखे से चलता है
बेटे का अमीर कुत्ता पिज्ज़ा खाता है बराबर
मूसीबत में अपना ईमान और स्वाभिमान ही
फ़रेबों के आगे झुकने से बचाता है बराबर
ऐ समन्दर तू अपने उफ़ानों पर इतना इत़रा मत
सुन ‘शशि’ का अश्क भी सैलाब लाता है बराबर
लेखक- डाo सच्चितानन्द 'शशि '