ग़ज़ल-23
लग गई जाने किसकी ऐसी नज़र कि उम्र अब घटने लगी है
कभी उतारती थी जो नज़र , कमी उस माँ की खलने लगी है
कि नहीं चाहती है वह मुझे सोचा करता था मैं अक़्सर जिसे
उस माँ के ही कदमों में अब मुझे ज़न्नत नज़र लगने लगी है
जब था कोख में सुनाती थी तू हुआ था असफल क्यूँ अभिमन्यु
नाकाम यहाँ की हर चक्रव्यूह को तेरी वह कहानी करने लगी है
नहीं चला सका संसार तो बना दिया माँ को अपना अवतार
छीना अमरत्व अधिकार इसलिए ख़ता ख़ुदा की लगने लगी है
दौड़ा “शशि” सुन मौत की ख़बर किया जख़्मी राह का पत्थर
“चलाकर बेटे सम्हलकर” हिफ़ाज़त में अब रूह कहने लगी है
लेखक- डाॅ सच्चितानन्द चौधरी “शशि”
दिनांक- 30-05-2014