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मेरे दादाजी-दादा जी के साथ बिताए पल व उनकी स्मृतियों को

Vikas Yadav 'UTSAH' 07 May 2023 कहानियाँ अन्य मेरे दादाजी विकास यादव उत्साह कहानी दादाजी संस्मरण लेख 13301 0 Hindi :: हिंदी

संस्मरण लेख -
शीर्षक - मेरे दादा जी

[यह एक संस्मरण लेख है, जिसके अंतर्गत मैंने अपने दादा जी के साथ बिताए पल व उनकी स्मृतियों को शब्द बद्ध करने का प्रयास किया है]

आखिर कहां से शुरू करूं?
 हां याद आया,

कहीं यही 90 पार कर रही उम्र लगभग 5 फुट कद- काठी ,सफेद लंबे-लंबे दाढ़ी बालों में से भूरा चमक मारता चेहरा धोती- कुर्ता पहने, और हाथ में लाठी सहित काली पन्नी लिए घर में प्रवेश करते हैं।

जी हां, मैं बात कर रहा हूं अपने दादाजी स्व० श्री जीऊत प्रसाद यादव (भू०पू० सै०) जो अभी-अभी अपनी मासिक पेंशन लेकर घर आए हैं, वह जब भी पेंशन लेकर आते तो परिवार के लिए कुछ ना कुछ जरूर लेकर आते, और उसी कुछ में हमारा सभी कुछ समाहित होता आखिर था तो बचपन ही ना, जो भी फल या मिठाई मिल जाए उसी में मन मगन हो जाता, हमें याद है जब गर्मी में तरबूज, आम व लीची तो वहीं ठंडी में समोसे लोंगलता, पकौड़े लाया करते, इतना सब कुछ लेने के बाद भी पूछा करते " नाती लोग अऊर कुछ चाही" अगर कुछ फरमा देते तो तुरंत भैया को हिदायत देकर मंगवाते।

सहसा याद आया कि 
अब धीरे-धीरे और वृद्धावस्था हो चुकी थी,ठंड का मौसम था, दादाजी खाट पर बैठे धूप ले रहे थे एक अंग्रेजों से भरी टूर वाली बस घर के सामने वाले मंदिर पर रूकती है, जब उनका खाना पीना बन रहा था तभी कुछ 55 वर्षीय एक अंग्रेज व्यक्ति दादाजी के पास बैठते हैं हाल- चाल लेते लेते उनके बीच वार्तालाप शुरू हो गई, तभी जाकर मुझे भी पता चला कि मेरे दादाजी को हिंदी ,भोजपुरी के साथ-साथ अंग्रेजी का  भी ज्ञान है।

दोनों लोगों के मध्य लगभग आधे घंटे तक बातचीत चली और अंत में उस अंग्रेज व्यक्ति ने अपने गले से एक पीतल की घड़ी निकालकर दादाजी के गले में डाल देते हैं और विदा लेते हैं ,क्योंकि दादा जी एक ब्रिटिश शासन काल के सिपाही थे ,जो कि मैंने ऊपर बताना शायद भूल गया।
वे सन् .............. में ब्रिटिश सेना में जुड़े और देश के लिए सेवा प्रदान किया परंतु परिवार के लोग बताते हैं, कि एक बार दादा जी घर आए थे छुट्टियां बीत चुकी थी ,और पुनः नौकरी हेतु घर से निकल रहे थे तभी हमारी छोटी बुआ शांति देवी जिन्हें वे प्यार से गुड़िया कहा करते थे, और आज भी परिवार में हम उन्हें गुड़िया बुआ ही कहा करते हैं।
 हां तो जब दादाजी जाने लगते हैं तब बुआ रोना शुरू कर देतीं हैं, उनका रोना दादाजी को देखा नहीं गया और नौकरी को त्यागपत्र देकर कुछ माह बाद तुरंत घर को लौट आए।
 मुझे याद आ रहा है, मैं लगभग 7- 8 वर्ष का हो चुका था, और दादाजी सेंचुरी पार करके मृत्यु के कगार पर  थे, आखिर मृत्यु से कौन वंचित हैं, जो आया है उसे जाना तो है ही।
वह ठंड का महीना दिसंबर (हिंदी कैलेंडर के अनुसार पौष माह )था, अभी प्रातः के 7:00 बजे थे जब दादाजी हर दिन की भांति आज भी चुकी ठंड का महीना था तो पैरों में टेनिस के जूते लंबी ऊनी कोट उसके ऊपर चादर ओढ़े गांव का एक चक्कर लगाकर घर की तरफ लौटते हैं, दादाजी का समाज में एक अलग पहचान सबसे मृदुलभाषी स्वभाव, जिससे मिलते आज भी बच्चों की तरह चेहरे पर चमक लिए हस कर बातें करते, दादाजी को गांव के साथ-साथ क्षेत्र के लोग भी उन्हें साधु बाबा या सिपाही बाबा कह कर पुकारते थे।
साधु शायद इसलिए कि वे भगवती माता की पूजा किया करते थे, और लंबे लंबे दाढ़ी बाल रखते हैं, मुझे याद है जब हमें बचपन में छोटी सी खरोच लग जाती तो हम रोते हुए उनकी शरण में जाते, वे कुछ मंत्र मारते उन्हें ज्यादा मंत्र विद्या तो नहीं आती परंतु वे जो भी करते इतने में हमारा काम बन जाता और हम खिलखिला कर वहां से चले जाते, और सिपाही बाबा इसलिए कहे जाते क्योंकि ब्रिटिश शासन काल के सिपाही थे।
तो यही सुबह का समय था दादा जी गांव भ्रमण  से घर आकर पुनः रजाई ओढ़े खाट पर बैठे चाय पी रहे थे, कुछ समय बिता उसके बाद पता चला कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है तो उन्हें क्षेत्र के एक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, दोपहर से ही दवा- दुआ करते करते शाम हो गई, और अंततः 12 दिसंबर शाम 7:00 बजे लगभग 112 साल की उम्र व्यतीत करके हमें छोड़कर इस दुनिया से चले गए। आज भी मेरे आंखों में उस दिन की यादें हटती नहीं, जब दादाजी की सौ(मृत शरीर) पतलू के ऊपर रखी गई ,धूप अगरबत्ती जलाया जा रहा था, इधर परिवार का रो रो कर बुरा हाल पता चलने पर शाम से ही रिश्तेदार व क्षेत्र के लोगों की भीड़ द्वार पर उमड़ रही थी, लोग आते ,चरण स्पर्श कर परिवार को उनके शीतल विचारधारा व अच्छे कर्मों को गिना कर सांत्वना देते, इस प्रकार हिंदू मान्यता के अनुसार उनका गंगाजी (गाजीपुर) में दाह कर्म किया गया।
 आज भी उनका बैच( वर्दी पर लगाया जाने वाला एक बिल्ला) दीवार पर टंगा देखकर मन मस्तिष्क में उनका प्यार व उनकी स्मृतियां ताजा हो जाती हैं।
 
रचना- विकास यादव "उत्साह"

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