Join Us:
20 मई स्पेशल -इंटरनेट पर कविता कहानी और लेख लिखकर पैसे कमाएं - आपके लिए सबसे बढ़िया मौका साहित्य लाइव की वेबसाइट हुई और अधिक बेहतरीन और एडवांस साहित्य लाइव पर किसी भी तकनीकी सहयोग या अन्य समस्याओं के लिए सम्पर्क करें

बचपन की यादें-बचपन वाली दीपावली

DINESH KUMAR KEER 09 May 2023 कहानियाँ समाजिक 5588 0 Hindi :: हिंदी

बचपन वाली दीपावली



बचपन की दीपावली का मतलब छोटी दीवाली, बड़ी दिवाली और उसके बाद गंगा स्नान (कार्तिकी) की तैयारी हुआ करता था। धनतेरस और भैया दूज कम से कम हमारे गांव में तो नहीं मनाया जाता था। यह दोनों चोंचले देखादेखी और शायद टेलीविजन के प्रभाव के कारण बाद में शुरू हुए।



उन दिनों दीपावली से लगभग 15 दिन पहले से ही इस त्यौहार की तैयारी शुरू हो जाती थी। सबसे पहले घर की पुताई के लिए दुकनहा गांव से बैलगाड़ी में भरकर सफेद मिट्टी लाई जाती थी और उस मिट्टी से घर का पूरा दरवाजा पोता जाता था। इस मिट्टी से पोतने के बाद घर का दरवाजा चांदी सा खिल उठता था। पूरे घर के अंदर भी खूब जमकर साफ -सफाई की जाती थी।



घर के जो सदस्य शहर में  रहते थे, उनका भी आगमन शुरू हो जाता था। घर की बहन बेटियां भी दीपावली में बुलाई जाती थी। हम बच्चों के लिए दीपावली का त्यौहार किसी वरदान से कम नहीं होता था।  क्योंकि चाचा, भैया, बुआ आदि से हम किसी न किसी बहाने कुछ पैसे ऐंठ लिया करते थे और उन पैसों से हम छुरछुरी, छोटा तमंचा, उसमें चुटपुट करके दगने वाली रील की डिब्बी, दीवार पर फेंककर मारे जाने वाले आलू बम/ मिर्ची बम खरीद लिया करते थे।  चिटपुटिया पटाखे को पत्थर से मारकर जमीन पर भी फोड़ सकते थे। कुछ बहादुर लोग उसे जमीन पर रगड़कर पिट्ट-पिट्ट की आवाज निकाल लिया करते थे। एक सांप की टिक्की भी आती थी जो जलाने पर काले सांप जैसी राख छोड़ती थी।



जब कुछ बड़े हुए तो तमंचे का साइज बड़ा हो गया था। अब उसमें नली भी हुआ करती थी तथा चुटपुट करके दगने वाली रील की जगह इस बड़े तमंचे में एक बार मे प्रयोग होने वाली गोली (काग) का प्रयोग होता था। इन दो- चार दिनों हम अपने को किसी सैनिक या दस्यु सम्राट से कम न समझते थे और ढूंढ ढूंढ कर निशाने लगाया करते थे। ज्यादातर निशाने कुत्तों पर लगते थे। यह तो अच्छा था कि हमारे गांव में कोई कुत्ता प्रेमी नहीं था, अन्यथा हम बचपन में ही जेल की हवा खा लेते।



दीपावली के दिन आंगन की गाय के गोबर से लिपाई  की जाती थी। उस पुताई और लिपाई की विलक्षण गंध अभी भी नथुनों में भरी हुई सी लगती है। शाम को मिट्टी की बनी लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति का पूजन होता था और उसके बाद चिरैया, गट्टा, लाई आदि का प्रसाद तथा मिठाई खाने को मिलती थी। पूजा के बाद सभी खेतों में दीपक रखे जाते थे। चरही, नाद, कुँवा, चारा काटने की मशीन, चक्की, रहट, कोल्हू, हंसिया,खुरपा, फरुआ आदि पर भी दिए रखे जाते।  घर के दरवाजे, पिछवारे, हर ताख, खिड़की और छत पर दिये या मोमबत्ती  रखी जाती थी। इस काम में हम बाबा, पापा, चाचा का कुछ सहयोग कर दिया करते थे ।



शाम गहराते-गहराते पूरा घर, मोहल्ला और गांव दीयों की रोशनी से जगमगा उठता था। उस दिन दीपावली की रोशनी में पढ़ना विद्यार्थियों के लिए अत्यंत शुभ माना जाता था। ऐसी मान्यता थी कि जो इस दिन पढ़ाई करेगा, उसका पूरे साल पढ़ाई में खूब मन लगेगा।



दीपावली के दिन हम जी भरकर पटाखे फोड़ते थे। उस समय किसी सुप्रीम कोर्ट या सरकार का कोई प्रतिबंध नहीं हुआ करता था। बस कभी असावधानी से पटाखे फोड़ने पर बड़ों की डांट जरूर मिल जाया करती थी। हमारे मोहल्ले में एक राठौर फूफा थे (अभी भी हैं) जो मेरे दरवाजे से अपने दरवाजे के बीच बिना गांठ वाला एक  मजबूत धागा या रस्सी बांधकर उसमें रेलगाड़ी दौड़ाया करते थे। यह दीपावली की रात का सबसे महंगा, आकर्षक और अंतिम आतिशबाजी हुआ करती थी।



दीपावली के दिन खूब स्वादिष्ट भोजन बनता था। पूरी- सब्जी और खीर बनना तो लगभग तय हुआ करता था। हम सभी बच्चे खूब भरपेट भोजन करते और जल्दी ही सो जाया करते थे क्योंकि सुबह जल्दी उठना होता था।



दीपावली के अगले दिन हम सब बच्चे एक दूसरे से जल्दी  सोकर उठने की कोशिश करते थे क्योंकि पहले उठने वाले बच्चे को ही सबसे ज्यादा दियाली मिलती थी। जिसके पास सबसे ज्यादा दियाली इकठ्ठा हो जाती, वह अपने को उस दिन का शहंशाह समझता था।  फिर हम उन दियाली से जीत- हार का खेल खेलते थे।



दियाली को मिट्टी के एक कूरा (ढेर) में गाड़ दिया जाता। दूसरा वैसा ही मिट्टी का ढेर उसी के बराबर बनाकर खाली छोड़ दिया जाता।  जिस खिलाड़ी की बारी होती, वह किसी एक ढेर पर उंगली रखता और अगर उसकी किस्मत अच्छी होती तो दियाली उसे मिल जाती थी, नहीं तो वह दियाली दूसरे खिलाड़ी की हो जाती थी। इस प्रकार यह खेल एक खिलाड़ी के सारे दिये जीतने या घरवालों के डांटने/ पीटने तक चलता रहता था ।



इन दियों का हार-जीत का खेल खेलने के अलावा एक उपयोग यह होता कि हम लोग इन दियों को पानी में भिगोकर गीला करते तथा सुआ से इसमें  तीन तरफ से छेद करके इसे तराजू बनाकर खेला करते थे। हालांकि यह दियों से हार-जीत का खेल कुछ ही दिनों की की मौज हुआ करती थी। दो-चार दिनों बाद दीये टूट जाते या फिर उनके प्रति आकर्षण खत्म हो जाता था।



लेकिन तब तक गंगा स्नान हेतु गेंगासों जाने के लिए लढ़ीया (बैलगाडी) को औङ्गने (धुरी में काला तेल लगाने), उसके पहियों में हाल (लोहे की रिंग) चढ़वाने, बैलों की सींग में तेल लगाने, उन्हें साफा, रंगीन झूल आदि पहनाकर सजाने-संवारने और सूरन की सब्जी बनाने की तैयारी होने लगती।

Comments & Reviews

Post a comment

Login to post a comment!

Related Articles

लड़का: शुक्र है भगवान का इस दिन का तो मे कब से इंतजार कर रहा था। लड़की : तो अब मे जाऊ? लड़का : नही बिल्कुल नही। लड़की : क्या तुम मुझस read more >>
Join Us: