Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक विकास और विनाश 92597 0 Hindi :: हिंदी
देखते- देखते, सब कुछ बदल गया। सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया। घरों में चूल्हों के लिए, काम आती थी मिट्टी। गैस चूल्हे ने जड़े जमा ली, सरक गई सिल- बट्टी। कमर दर्द, पेट दर्द, चूल्हे से निकलकर गिर गए भट्ठी। गैस, क़ब्ज़ ने क़ब्जा कर लिया, डकार आ रही खट्टी। खाद्याखाद्य, सारे स्वास्थ्य को तल गया। सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया। पहले महिलाएं, खुद ही चक्की पीसती थी। पानी कुएं से, खुद ही खींचती थी। शरीर का होता व्यायाम, नस-नस खुलती थी। ऐसी महिलाओं के, बीमारी पास नहीं फटकती थी। आज के छल -बल में, कल गया। सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया। देखते-देखते, सब कुछ बदल गया। सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया। पहले रगड़ -रगड़कर कपड़े, धोती थी दादी- नानी। आज मशीन में ही हिलता है, पेट का नहीं हिलता पानी। बटन दबाते सब तैयार, ठेठ गांव या हो राजधानी। बटन की शराकत से, शुरू हुई विनाश कहानी। विलासिता से मानव -अस्तित्त्व, मिट्टी में रल गया। सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया। बड़े आदमी कहलाते, जिनके ये सुविधा हो सारी। बड़े आदमियों के मिलती है, बड़ी ही बीमारी। अमीर -फ़क़ीर सब नाई, भोग रहे लाचारी। न छुड़ौती न कुंची, न दवा तीमारदारी। ऊपर से ठीक-ठाक, अंदर से राम निकल गया। सुख- सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया। देखते-देखते, सब कुछ बदल गया। सुख -सुविधाओं के नाम पर, ज़माना छल गया।