मोती लाल साहु 22 Jul 2023 आलेख धार्मिक धर्म 10823 0 Hindi :: हिंदी
पहले तुम शास्त्रों के अर्थ स्वरूप आत्मज्ञान को गुरु कृपा से प्रत्यक्ष जानो, तब कुछ "धर्म" के विषय में समझ सकते हो। "धर्म" तर्क-वितर्क करने की वस्तु नहीं है, "धर्म" न विद्वता के, न संप्रदाय के और ना ही किसी मतवाद के बंधन में ही है। वह तो प्रत्यक्षनुभूति अर्थात साक्षात्कार का विषय है। यदि "धर्म" पुस्तकों के, बुद्धि के, संप्रदाय के या किसी मत विशेष के बंधन में हो जाएगा तो वह "धर्म - धर्म" न रहकर एक व्यवसाय या दुकानदार के हाथों का खिलौना बन जाएगा और जब "धर्म" व्यवसाय बन जाता है तब उसका लोप हो जाता है इसलिए "धर्म" वेद शास्त्रों में- व्याकरण के शब्दों में- मौखिक वाद-विवाद में अथवा किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारे में सीमित नहीं रह सकता वह तो आत्मसाक्षात्कार में ही निहित है और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम तत्वदर्शी गुरु के चरणों में नतमस्तक होना पड़ेगा। इसके लिए पहले विनम्रता की आवश्यकता है दम्भ-पाखंड और अहंकार के हृदय में रहते हुए आत्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता क्योंकि अंधकार और प्रकाश- पाप और शांति- विषयानन्द और आत्मनन्द यह दोनों कभी साथ-साथ नहीं रह सकते, ईश्वर का भजन और भोगों की कल्पना कभी एक साथ नहीं टिक सकते। सद्गुरु की भक्ति और भूत-प्रेतों की उपासना का परस्पर कैसे सामंजस्य हो सकता है? इसी प्रकार तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, गाली-गलौज, ईर्ष्या-द्वेष, दम्भ और पाखंड़ को जब तक प्रोत्साहन देते रहेंगे, तब तक शास्त्रों के मर्म को नहीं समझ सकते, इसमें झुकने की आवश्यकता है। नम्रता और दीनता की आवश्यकता है। यही तो एक ऐसा स्थान है जहांँ शास्त्रों के अर्थ को समझने के लिए पहले सर झुकाना पड़ता है। तुम्हें मुबारक हो, हुजूर-ए-खास का दरबार है ये,, हे मानव के- राज हंस यही वो दर है, जहां हर किसी को सर झुकाना है..!! -मोती