कविता केशव 30 Mar 2023 कविताएँ धार्मिक अन्तमुर्खी ही देही अभिमानी है 80895 0 Hindi :: हिंदी
आश्चर्य कैसी मुसीबतों में, देह अभिमानी पड़े हुए हैं, स्वधर्म अपना भूलकर--- माया के चक्कर में फंसे हुए हैं! मोह-माया कैसी है यह प्रबल--- मोह की जंजीरों में जकड़े हुए हैं। स्वधर्म विस्मृति, उल्टी यह रीति, जन्म अमोलक खोए रहे हैं! प्रकृति के मालिक हो करके फिर गुलाम विषयों के बने हुए हैं। अजब तमाशा, विचित्र लीला ; पुरुष को प्रकृति नचा रहे हैं! देहीं अभिमानी को विदा करके, देह अभिमान में खेल रहे हैं! विकारों के लेने व देने के धंधे में, आत्मघाती मरे पड़े हैं। बाह्यमुख़ता कैसी है यह मूर्खता, ज्ञानी हमें यह समझा रहे हैं! सुनो, सुनो भारत के प्राणी, करो अपने ऊपर मेहरबानी! छोड़ो,छोड़ो .... गफलत और नादानी ! मनुष्य है बोलता चलता मंदिर, मुफ्त बनते क्यों कामी बंदर! तुम करो ना अपनी हानि..... चलते फिरते बनो तुम ध्यानी।। कविता केशव