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मैंने सुना था-चारों और से सुंदर वनों फूलों की लताओं सुनहरी प्रकृति

भूपेंद्र सिंह 03 Jan 2024 कहानियाँ दुःखद दुखद कहानी, झूठों की जीत 8340 0 Hindi :: हिंदी

कहानी

              मैंने सुना था
               (भाग - 1)

बहुत अरसे पहले की बात है। चारों और से सुंदर वनों, फूलों की लताओं, सुनहरी पहाड़ियों, छोटे बड़े तालाबों और प्रकृति के हर अद्भुत नज़ारे से घिरी हुई, बहुत ही सुंदर रियासत थी फिरोजाबाद। राजा राय बहादुर जी फिरोजाबाद के सुल्तान थे, उम्र लगभग साठ साल की थी। शरीर से भले ही बूढ़े थे मगर दिमाग एक तरुण की तरह तेज और चुस्त था। कहते हैं की मन से तो किशोर हो सकते है मगर शरीर वैसा चुस्तीला, फुर्तीला और गर्वीला नहीं हो सकता है। फिरोजाबाद एक विशाल रियासत थी जिसे संभाल पाना कोई चूहे बिल्ली का खेल नहीं था। महल में दिन रात सिपाहियों, अनुचरों ,मजदूरों, दासियों की भीड़ लगी रहती थी। क्या शोभा थी महल की? कुछ कहने को न बनता था। कोई राजा राय बहादुर के खिलाफ अंगुली उठाए, यह असंभव था, क्योंकि वो किसी का भी सर धड़ से अलग करा देने की हिम्मत रखते थे। राजा राय बहादुर जितने दयालु थे उससे ज्यादा क्रूर थे। रियासत के लोगों के लिए वो एक और अभिलंब थे तो दूसरी ओर तबाही का एक समंदर। हाल ही में फिरोजाबाद में मजदूरों ने सोने की एक खान खोज डाली थी। खान से सोने को निकाल कर उसे शुद्ध किया जाता, फिर सिक्कों में ढाल कर, पेटियों में बंद करके महल के अंदर तक पहुंचाया जाता था। इन्हीं असरफियों से सारा आय व्यय, लेखा जोखा, खान पान और खर्चा चलता था। महल के अंदर सोने के बक्से आते थे, ये बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबको मालूम था, मगर ये बक्से किस जमीं की और कुच करते थे , ये किसी को मालूम न था। राय बहादुर जी के महल में पहरेदारी इतनी ज्यादा सख्त थी की चोरी के नाम से भी चोरों के पसीने छूटते थे। रियासत के सभी रईसों, चोरों जहां तक हर एक व्यक्ति की नज़र उन डिब्बों के ऊपर थी मगर चोरी करने के नाम से हर एक का कलेजा बाहर को आ जाता था। लेकिन जिस जगह ईमानदार मौजूद हो , वहां पर बेईमानों का पाया जाना कोई विरोधाभास नहीं, शायद यहीं सयोंग है। आइए पाठकों एक चक्कर फिरोजाबाद रियासत की गलियों का लगाएं। चोर को तो चोरी करने का मौका चाहिए चाहे वह महल से करनी हो जा किसी गरीब के घर से। फिरोजाबाद रियासत में एक जमींदार रहते थे, जिनका नाम था मगधीरा दत्त। लोग प्यार से उन्हें दत्ता जी कहकर पुकारते थे। दता जी खुद चोरियां नहीं करते थे, मगर चोरों के सरताज थे , शायद यही विरोधावास है। उन्होंने चोरियां करने के लिए कई लौंडे पाल रखे थे। वे चोरियां करते और चोरी का सारा माल उनके हाथों में ला थमाते। दता जी अपना हिस्सा उसमे से रख लेते और बाकी उन चोरों में बांट देते थे। इसी से सभी की गुजर बसर हो रही थी। पेट की आग को आग को ठंडा करने के लिए इंसान को कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है। कहने को भले ही जमींदार थे मगर सच बात तो ये थी की उनके पास रहने के लिए जमींदारों के जैसा ठाठ बाठ न था। वे तो सिर्फ उन दस बारह लौंडो पर ही निर्भर थे जो उनके लिए चोरियां करते थे। उसने रियासत के किसी जिंदा प्राणी को ये भनक तक न पढ़ने दी की वो ही चोरों का सरताज बना घूमता है। मगर रह रहकर उनके मन में एक बात कचोटती थी की वे कभी भी महल में आने वाली सिक्को की पेटियों को न चुरा सके। अब आप ही बताइए एक बिल्ली रोज छोटे छोटे चूहों को खाकर कब तक संतुष्ट रहेगी , उसे तो कोई बड़ा परिंदा चाहिए शिकार के लिए। दता जी की नज़र अब महल में आने वाले सोने के सिक्को के उन डिब्बों पर थी पर ये काम तलवार के नीचे अपनी गर्दन रखने के जैसा था। वे डिब्बे कहां से आते थे , इसकी भनक हर जीवित प्राणी के मस्तिष्क में मौजूद थी मगर वे डिब्बे कहां जाते थे ये फिरोजाबाद का सबसे बड़ा रहसय था। दता जी के मन में यह विचार घर कर गया था की अगर सोने की मुहरों का एक डिब्बा भी उसके हाथ लग जाए तो वो तमाम उम्र हरामियों सी नींद लेगा, बाहर सरायों में जाकर देशी विदेशी खाना खायेगा और अपने ही घर में महाराज बन फूला न समाएगा। मगर जलते दरिया में हाथ कौन डाले। आज दता जी ने इस असंभव काम को अंजाम देने का मन बना लिया था। दता की काले लुटेरों की मंडली में दो होनहार थे जो की अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाने के लिए प्रसिद्धि पा चुके थे। एक का नाम था मुन्ना और दूसरे का छोटा। अगर ये दोनो इस काम को न कर सके तो पूरे संसार में ऐसा कोई भी नहीं को इस काम को अंजाम दे सके। अनेक विचार दता जी के मस्तिष्क में मकड़ी के जाल की तरह उलझे पड़े थे। कुछ अनिश्चित से विचारो को अपने साथ ले वो घर से बाहर जा निकला।।
शाम का वक्त है। कुछ कुछ सूरज अभी नज़र आ रहा है। फिरोजाबाद रियासत की पूर्वी दिशा में एक जंगल है जो चारों और से पहाड़ियों से घिरा हुआ था , ये सुनहरी पहाड़ियां है। सुनहरी पहाड़ियों के सुनहरे जंगल में कुछ पेड़ों के नीचे बड़े बड़े पत्थरों के ऊपर 7 - 8 लोग बैठे हैं जो आपस में चारों और तेजी से नज़र दौड़ाते हुए कुछ विचार विमर्श किए जा रहे हैं।
दता जी - " हरिराम आज की रात हमे उन सिक्कों की पेटियों को चुराना हो होगा, हर हाल में चुराना होगा। अगर आज की यामिनी इस काम को अंजाम तक न पहुंचाया जा सका तो फिर जिंदगी में कभी न पहुंचाया जा सकेगा।"
हरिराम - " लेकिन दता साहब कौन बहादुर पैदा हुआ है जो इस काम को सर कर सके "
दता जी - " मुन्ना और छोटा तुम दोनो आज की रात ये चोरी करोगे।"
"हम दोनों " वे दोनों एक साथ बोल पड़े।
दता जी - " फिक्र मत करो, हम भी तुम्हारे साथ हैं। तुम दोनो को बस एक बार इस वजीर कयामत खां की आंखों में धूल झोंक कर उस महल में घुसना है। अगर एक बार वो माल हमारे हाथ चढ़ गया तो तमाम उम्र किसी की और आंख उठाकर न देखना पड़ेगा।"
छोटा - " ठीक है तो फिर हम तैयार है मगर सिक्के सबमें बराबर बंटेंगे।"
दता जी - " जैसा तुम मुनासिब समझो। लेकिन एक बात का ध्यान रखना अगर डर गए तो समझो मर गए , और हो सकता है की एक बार जाने के बाद तुम वापिस न लोटो। ये काम मछली के तालाब में तैरने की तरह है, अगर तुम दोनों किसी भी हाल में रुके तो फिर मारे जाओगे।"
मुन्ना - " लेकिन योजना क्या है हुजूर।"
दता जी - " ( हंसते हुए)  योजना ये है............।"

              (भाग - 2)
मुन्ना और छोटा को आज एक अनचाहा काम करना पड़ रहा था, यही दासता है। किसी समय में किसी अंबेडकर नाम के व्यक्ति ने गुलामी को अन्याय माना था, मगर आज वो सकती इनके विपक्ष मे काम रही थी। दता जी के आगे इस काम को करने से मना करना वे दोनों भैंस के आगे रोना अपना दीदा खोना जैसी बात मानते थे।
अंधेरी रात। अमावस्या की काली रात। चारों तरफ घना अंधेरा, एक जानलेवा सन्नाटा हर और पसरा हुआ, किसी जानवर तक की आवाज उस रात सुनाई न दे रही थी। महल के बाहर पांच दस सिपाही मसालें लिए चक्कर काट रहे थे। मुख्य द्वार खुला हुआ था, सोने की मुहरों की पेटियां जो आने वाली थी। दो सिपाही महल की चारदीवारी की और चक्कर लगाने के लिए निकले। एक का सर कटा अब दूसरे का भी, किसी के मुंह से आवाज तक न निकल सकी। अनचाहा काम किसी की जिंदगी लेकर ही होता है। वैसे भी घने अंधेरे में कोन चेहरे देखता है। सोने की असरफियों की पेटियां आई। दो सिपाही उन्हें अंदर ले जा रहे हैं। आगे आगे वजीर मशाल लेकर चले जा रहे हैं। राजा राय बहादुर चैन की नींद सोए पड़े थे, जानते थे वजीर सारा काम अपने आप करवा देंगे, उनका ये सोचना गलत भी न था। काम हो रहा था, मगर बेचारा वजीर कयामत खां इस बात से बेखबर था की सिक्कों के डिब्बे दो सिपाही नहीं बल्कि सिपाहियों के वेश में दो चोर उठाकर चले जा रहे थे। महल के अंदर एक खुफिया रास्ते से होते हुए जमीन के नीचे स्थित तहखाने में उस डिब्बे को सम्मानजनक स्थान प्राप्त हुआ, पर जल्द ही उसे इस स्थान से चुरा लिया जाएगा, भला इस बात को कोन जीवित प्राणी जानता था?
वजीर ने डिब्बा खोला। उस अंधेरे से भरे हुए तहखाने में भी वो मोहरें हीरों की तरह चमक रही थी जिसे देखकर किसी के मन में भी चोर आ जाए। दोनो चोर उस दृश्य को अपलक देखे जा रहे थे, जिंदगी में पहली बार इतना धन जो देखा था। वजीर ने तहखाने के ताला लगाया और जैसे ही पीछे की और सर घुमाया तो पत्थर की ऐसी चोट पड़ी की उसके लिए दिन रात एक जैसा होकर रह गया। वो वहीं पर मूर्छित होकर गिर गया। उसकी जिंदा लाश को एक और ले जा फेंका गया जैसे वो कोई कचरे का ढेर हो। उस समय सारा महल शांति की नींद में सोया पड़ा था, पर किसी को भी इस बात की खबर नहीं थी की इस समय दो खुराफाती चोरी करने में मशगूल हैं। उन्होंने वजीर के कमरबंद से तहखाने का गुप्त नक्शा निकाला, सिक्को की पेटी उठाई और एक गुप्त रास्ते से बाहर की और निकल पड़े। ये रास्ता सीधे जंगल में एक गुफा में जाकर खुलता था। गुफा के बाहर दता जी और उनके कई लौंडे पहले से ही विराजमान थे। भागकर मुन्ना और छोटा के हाथों से उस पेटी को पकड़ लिया और तेजी से वहां से भाग निकले।
सुबह हो चुकी थी और चोरी की बात महल में आग की तरह फैलने लगी मगर जल्द ही वजीर ने इस बात पर पानी डाल मशला हल किया। जिन सैनिकों को इस चोरी का पता था उन सबके वजीर ने सर कलम करा दिए। वजीर कयामत खां ने हर हाल में ये खबर राजा राय बहादुर तक न पहुंचने दी क्योंकि इस बात से वह भी अपरिचित नहीं था को अगर राजा को इसके बारे में पता चल गया तो उसे उसके पद से खारिज किया जा सकता है और ये होना भी कोई बड़ी आफत नहीं की उसके हाथ पैर काट नदी में बहा दिए जाएं। दुनिया का सबसे बड़ा डर मौत है। एक छोटा कीड़ा भी अपनी जान बचाने के लिए छटपटाने लगता है फिर एक वजीर की हालत तो आप समझ ही सकते हैं।
खैर छोड़ो, अब नतीजा यह हुआ कि चोर उस खुफिया रास्ते से चोरी को अंजाम देने लगे। वजीर को एक दिन इसकी भनक पड़ गई। वो कुछ जाल बिछाने की फिराक में घूमने लगा।।

                 भाग - 3

रात होने को आ गई है। सूर्य देव धीरे धीरे समुंद्र में गोता लगा रहे हैं। महल के अंदर जमीन में गहराई में स्थित गुप्त , काले और खुफिया तहखाने में एक हटा कट्टा काला। आदमी तेजी से इधर उधर चक्कर काट रहा है। दो सिपाही उसके पीछे खड़े उसकी और घूरे जा रहे हैं। चक्कर काटने वाला व्यक्ति वजीर कयामत खां हैं।
कयामत खां - "कुछ समझ में नहीं आ रहा है की क्या किया जाए? चोर को पकड़ा कैसे जाए? चोर जो कोई है बड़ा शातिर है। पहले मुझे चुना लगा दिया और फिर खुफिया नक्शा चुरा लिया। अगर महाराज को ये खबर हो गई तो हमारा तो सर कलम करवा देंगे। क्या किया जाए?"
एक सैनिक - " हुजूर अब चोर जरूर जंगल वाले रास्ते से ही आते होंगे। आपका नक्शा भी उनके पास है।"
कयामत खां - " तुम सही कह रहे हो पन्नालाल। बिल्कुल सही कह रहे हो।"
पन्नालाल - " हुजूर मैं तो सलाह दूंगा की हमे उस खुफिया रास्ते को बंद कर देना चाहिए।"
कयामत खां - " अरे नहीं। ऐसा करने से हम उस चोर को पकड़ने का आखिरी मौका भी गवा देंगे। उस रास्ते को खुला रखना होगा। एक काम करो तुम दोनों पन्नालाल और चुन्नीलाल आज की रात इसी तहखाने में डेरा डाल लो। लालच चोर को जहां तक जरूर खींच लायेगा और जैसे ही वो आए उसका सर कलम कर देना।"
"जी हुजूर काम हो जायेगा" दोनों एक साथ बोल पड़े।
कयामत खां ने कुछ राहत की सांस ली और तेजी से वहां से निकल पड़ा। दोनों सिपाही भी धीरे धीरे उसके पीछे चलने लगे।
इसी तहखाने में एक नकाबपोश एक बड़े से पत्थर के पीछे छिपा बैठा था जो चौकन्ना हो सारी बाते सुने जा रहा था। वो धीरे से एक पत्थर को एक और हटाकर एक सुरंग में घुस गया और जंगल में एक गुहा के अंदर से जा निकला। देखते हैं अब ये नकाबपोश कहां जाता है?
रात हो चुकी है। पूरी रियासत अंधेरे के समुद्र में धीरे धीरे गोता लगा रही है। दता जी के घर में चार पांच लौंडे उनके आस पास मखमली गद्दों पर लेटे पड़े हैं। दता जी को अब रईस दता जी कहें तो शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
रईस दता जी - " मुन्ना और छोटा तुम्हारी करामात बदौलत हम निहाल हो गए।"
छोटा - " और नहीं तो क्या? अभी तहखाने में और भी बहुत सी मोहरें बाकी है। धीरे धीरे करके उन पर भी अपना हाथ डालेंगे।"
छोटा के इतना कहते ही वहां पर हंसी के ठहाके लगने लगे पर तभी एक लौंडा वहां पर बदहवास सा भागता हुआ आया और गद्दे पर औंधे मुंह लेट हांफने लगा।

मुन्ना - " ये नकाबपोश कौन है?"

दता जी - " अरे ये हमारा जासूस , गुप्तचर और दिल्लगी यार हरी है।"

हरी - " हुजूर गजब हो गया। वो कयामत खां चोरों को पकड़ने की फिराक में घूम रहा है। उसने तहखाने में भी जाल बिछाया है अब तो हर हाल में चोरी करना मुनासिब नहीं।"

दता जी - " जिसका डर था वही हुआ। उस कयामत खां के हाथ बहुत लंबे हैं। किसी भी वो वक्त वो हमारी गर्दन तक पहुंच सकते है।"

मुन्ना - " मैं तो कहता हूं माल असबाब बांधो और रियासत छोड़ कर भागो।"

हरी - " एक न एक दिन हमारी मंडली पकड़ी जायेगी और फिर हमे फांसी पर लटका दिया जाएगा। मैं..मैं मरना नहीं चाहता, मैं मरना नहीं चाहता।"

मुन्ना - " मरना तो मैं भी नहीं चाहता। अब करें तो करें क्या? आगे कुआं पीछे खाई अब ये मुसीबत कहां से आई।"

दता जी - " (गुस्से में) अरे चुप करो मूर्खो किसी को फांसी नहीं लगेगी। हम एक ऐसा जाल बुनेगे की न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।"

हरी - " अब चोरी के काम में बांस और बांसुरी का क्या काम?"

दता जी - " अरे चुप कर मुर्ख! ये एक कहावत है। हमे उस तहखाने में किसी को भेजना होगा जो की उस कयामत खां के हाथ चढ़ सके। उसे लगेगा का उसने मैदान सर कर लिया है, चोर पकड़ा गया है और फिर मामला ठंडा हो जायेगा और हम तमाम उम्र ऐश करेंगे। वैसे भी फिलहाल हमारे पास इतना धन है की हम आधी जिंदगी शोनों साकत से गुजार सकते हैं और आधी जिंदगी के बारे में बाद में देखा जायेगा न जाने तब तक हम जिंदा रहे या न रहें।"

मुन्ना - " लेकिन कयामत खां के हाथों मरने के लिए जायेगा कौन? मैं तो हरगिज न जाऊंगा।"

छोटा - " मैं भी न जाऊंगा।"

दता जी - " डरो मत हम में से कोई नहीं जाएगा। हम किसी ऐसे मोहरे को जाल में फसाएंगे की वो खुद को वहां पर ले जाने  से हर हाल में रोक न सकेगा।"

हरी - " ( आश्चर्य से) लेकिन वो मोहरा है कौन?"

ये बात सुन दता हंसने लगता है।।



                भाग - 4

दता जी - " जायेगा हरी वो बूढ़ा वहां पर हर हाल में जायेगा।"

मुन्ना - " बूढ़ा?"

दता जी - " अरे वहीं दीनदयाल बूढ़ा। जो एक माह पहले मुझसे 200 मोहरे उधार लेकर गया था, अब वो मोहरे ब्याज लगकर 300 से भी अधिक हो चुकी होंगी। कर्ज चुका नहीं पा रहा है। उससे अच्छा मोहरा और कहां मिलेगा?"

हरी - " लेकिन उसकी बलि चढ़ते ही उसकी बूढ़ी पत्नी और पोती का क्या होगा? उसका बेटा और बहू तो पहले ही मर चुके हैं। मुझे लगता है ये सही नही होगा।"

मुन्ना - " हां हरी सही कह रहा है दता साहब।"

दता जी - " चुप करो मूर्खो। अगर उस बूढ़े पर इतना ही तरस आ रहा है तो तुम दोनों उस कयामत खां के हाथों अपनी गर्दने कटवा लो। वैसे भी उस बूढ़े की अब उम्र हो गई है वो मर भी जायेगा तो धरती से बोझ कम होगा और धरती माता सदेव हमारी आभारी रहेगी और वैसे भी अगर फांसी से बचना है तो ये काम हर हाल में करना होगा।"

मुन्ना - "ठीक है तो फिर उस बूढ़े को बुलाते हैं और उसे उस गुहा में माल असबाब लूटने भेज देते हैं?"

दता जी - " अरे नहीं ये इतना आसान नहीं है। उस बूढ़े को शिकंजे में कसने का मतलब है की किसी घायल शेर का शिकार करना। अगर उसके मुंह पर हम ये बात कहेंगे तो उसे शक हो जायेगा कि हम भले उसकी मदद क्यों कर रहे हैं? और अगर वहां इतना माल असबाब लूटने को पड़ा है तो हम वहां हाथ क्यों नहीं कसते।"

हरी - " दता जी आप बिल्कुल सही कह रहे हो? लेकिन अब उसे वहां भेजेंगे कैसे?"

दता जी - " आधी रात हो चुकी है। फिलहाल अभी कुछ कर पाना मुनासिब नहीं। कल सुबह एक ऐसी साजिश रची जायेगी की वो दिन इतिहास में काले अक्षरों से लिखा जाएगा।"

इतना कहकर दता जोर जोर सर हंसने लगता है।।

दोपहर का वक्त है। जंगल की और से सुखी लकड़ियों की एक गठरी सर पर लादे, एक बूढ़ा धीरे धीरे चला आ रहा है। 

जंगल में एक पीपल के पेड़ के नीचे दो लड़के बैठे हुए हैं। फटे पुराने कपड़े पहन रखे हैं। हुलिया बिगड़ा हुआ है या फिर जान बूझकर बिगाड़ा है, कुछ समझ में आते नहीं बनता।

पहला आदमी - " दीनदयाल बूढ़ा चला आ रहा है, शिकंजा कसो।"

दूसरा - " अभी कसते हैं।"

वे दोनों आदमी आपस में कुछ बुधबुधाने लगते हैं। दीनदयाल धीरे धीरे उनके पास जाता है और उनकी चुगली में दिलचस्पी लेकर वहीं पर छिपकर उनकी बातें सुनने लगता है।

पहला आदमी - " अरे तुमने सुना भी है क्या भाई बोधा सिंह दता जी चंद दिनों में अमीर कैसे हो गए?"

दूसरा आदमी - " अरे नहीं तो तुम ही बता दो?"

पहला आदमी- " किसी को भी बता मत देना की हमारे सुनहरे जंगल में जो गुहा है वो एक तहखाने तक जाती है जो की माल असबाब से भरा पड़ा है वहीं से लोग रात को जाकर धन लाते हैं।"

दूसरा आदमी - " अच्छा तभी तो हरी, दता जी, मुन्ना और छोटा से रईस बन गलियों के चक्कर काटते हैं।"

पहला आदमी - "और नहीं तो क्या? आज हम दोनों भी वहां से सिक्के लेकर आएंगे और मोज करेंगे।"

इन दोनो की बातें सुनकर उस बूढ़े दीनदयाल की आंखे खुल गई। वो अपने मन में सोचने लगा " मैं तो पागल था जो मजदूरी करके पेट भर रहा था। लोग तो हराम का माल खा मजे लूट रहे हैं। मैं भी फिर पीछे क्यों रहूं?"

इतना सोचते हुए वो तेजी से अपने घर की और भाग गया।

घर जाते ही वो चिलाने लगा।

दीनदयाल - " अरे भाग्यवान अब हमारी गरीबी के दिन खत्म। आज रात से ही हम भी अमीर हो जायेंगे। तुम्हारे जेवर भी आयेंगे और विपासा के लिए मिठाई भी।"

दीनदयाल की पत्नी उसकी और शक भरी निगाहों से देखते हुए बोली " लगता है आप बाबले हो गए हैं। क्या बक रहे हैं?"

दीनदयाल - " अरे भाग्यवान जंगल की गुफा में एक तहखाना है जहां पर हीरे मोतियों की भरमार है। ये सब मैने अपने कानों से सुना है। आज की रात मैं वहां से खूब दौलत लेकर आऊंगा।"

पत्नी - " मुझे तो कुछ सही नहीं लग रहा है।"

दीनदयाल - " तुम्हे तो कभी कुछ सही लगता भी नहीं है। ये सब मैने सुना है।"

इतना कह दीनदयाल तीन चार बड़े बड़े थैले ढूंढने लगा और मारे लालच के बेसब्री से रात का इंतजार करने लगा।।

रात हो चुकी है। धीरे धीरे अंधकार बढ़ रहा है। दता जी अपने घर में टहल रहे है तभी छोटा और मुन्ना वहां पर आ जाते हैं।

दता जी - " मैं कब से तुम दोनों का ही इंतजार कर रहा था। अच्छा ये बताओ काम हुआ?"

मुन्ना - " हुजूर उस हारामी बूढ़े को ऐसे गढ़े में धक्का मारा है की वो चाहकर भी बाहर नहीं निकल सकता।"

इतना कह वे तीनों जोर जोर से हंसने लग जाते हैं। उम्मीद है पाठक समझ गए होंगे की पीपल के पेड़ के नीचे वेश बदल कर बैठे दोनों आदमी मुन्ना और छोटा ही थे।।



                   भाग - 5



रात का समय है। एक जानलेवा सन्नाटा जंगल में चारों और पसरा हुआ है। जंगल की काली गुहा में किसी कर पैरों को आवाज सुनाई पड़ती है। पैरों के धीरे होने की आवाज, पैरों के तेज गति से चलने की आवाज। अब तहखाने में किसी के हांफते हुए पहुंचने की आवाज। किसी काली सी परछाई ने वहां पर अब एक संदूक को खोला और अपने थैले को सिक्कों से भरने लगा। हालांकि दीनदयाल को इन बातो पर कुछ शक तो हुआ था मगर आवेग में आकर वो अपने उधीसठ स्थान से आगे निकल गया था। वो अपने थैले भरने में मशगूल था। इस बात से अनजान की अब वो वजीर के जाल में फंस चुका है। उसने अपने थैले भरे और पीछे मुड़ा तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। दो सैनिक कुछ दूरी पर हाथों में तलवार लिए खड़े उसकी और देख मुस्कुरा रहे थे।

बूढ़े की चीख निकल गई। उसे अपनी मौत ले साक्षात दर्शन हो गए थे। वो तेजी से गुफा से बाहर भागने लगा पर शायद उसकी टांगो में अब वो शक्ति न थी जो शायद उसे बचा पाती। वो ठोकर खा जंगल में गिर पड़ा और ढेर होकर रह गया। बूढ़े ने सैनिकों को देखने के लिए ज्यों ही अपना सर पीछे घुमाया तो उसका सिर उसके धड़ से अलग होकर दूर जा गिरा। मोहरें वहीं बिखर गई, चारों तरफ खून बिखर गया। उसकी आंखे मानों कुछ न कहकर भी कह रही हो " इस तहखाने ने कई लोगों को अमीर कर दिया। ये सब मैने सुना था।लेकिन जहां सौ झूठे इक्ठे हो जाएं वहां पर एक सच्चा हार जाता है।" 

यही उसकी जीवन भर की कमाई, सत्यनिष्ठा, कर्तव्य प्रायंता और सवाविमान का परिणाम था। सुबह होते ही उसकी लाश के पास उसकी पत्नी और पोती विपाशा बैठी फूट फुटकर रो रही थी। 

उस वृद्ध की जिंदगी के बदले वजीर और जमींदार की जिंदगी बच गई, पर क्या ये उचित था?



✍️✍️ भूपेंद्र सिंह रामगढ़िया।।

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