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बचपन की दौड़-बचपन से ही एक दौड़ लगी थी जिंदगी को बचाने की

Onkar Verma 29 Jan 2024 कविताएँ समाजिक बचपन 2687 0 Hindi :: हिंदी

बचपन की दौड़

बचपन से ही
एक दौड़ लगी थी
जिंदगी को बचाने की 
कुछ पाने की
कुछ आजमाने की होड़ लगी थी……

कुछ सपने पाले थे
कुछ अलग करने की
कुछ अलग दिखने की
एक तमन्ना थी
एक ऊँची उड़ान भरने की
अपनी पहचान बनाने की
कुछ अलग कर दिखाने की
बिन रुके बिन थके
बढ़ते जाने की…
अंजान डगर
मुश्किल सफऱ
पहाड़ सी चुनोतियाँ
पार करता गया
आगे बढ़ता गया…………
जो सोचता गया
वो खोजता गया
गम ही गम थे
खुशियाँ बड़ी  कम रही……
फिर भी हारा नहीं
जिंदगी इम्तिहान लेती गई
नए मक़ाम देती गई
लगता है सब कुछ मिल गया
कोई चाहत बाकि नही
इतनी खुशियां मिल गई
अब अपनी झोली में समाती नहीं……
ऐ ख़ुदा ! इतनी मेहर करना
जो मिला उसे संभाल पायूँ
खुशियां ले पायूँ
खुशियां दे पायूँ
जो चाहा वो सब दिया
जिंदगी तेरा लख  - लख शुक्रिया...............

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