Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक काचीय घर 66840 0 Hindi :: हिंदी
कांच के कंगूरे, कांच की दीवार। रहने वाले कांच के, कौन करे पत्थर से वार? इस दुनिया में कांच के, चिरक ढांस हैं घर। रहने वालों में, अजीब -सा समाया डर। उनकी और उंगली उठाना, चींटी के निकलना पर। चिलक के चिलकने से, अंधे होने का है डर। कांच चिलकी से कांच की, नहीं मरती है धार। रहने वाले कांच के, कौन करे पत्थर से वार? मुक़ाम- मुक़द्दर की नींव, मकर -चकर से लगती है। रहने वाले जानते हैं, इमारत परदे के पीछे बनती है। टूटने के बाद, कोड़ियों के भाव बिकती है। यदि पत्थर फेंके, तो अपनी वाली कब टिकती है? रहते हैं ईमानदारी के, घोड़े पर सवार। रहने वाले कांच के, कौन करे पत्थर से वार? खुद मिट्टी के, घर मिट्टी के, वे ही पत्थर फेंकते हैं। कभी वे दरक जाते, कभी वे टूटते हैं। उनके बिखरे टुकड़े, चीलर के ही चुभते हैं। चोर, चोर मौसेरे भाई, आपस में साक्षी बनते हैं। जो पकड़ा गया वह चोर, शेष होशियार। रहने वाले कांच के, कौन करे पत्थर से वार? कांच के कंगूरे, कांच की दीवार। रहने वाले कांच के, कौन करे पत्थर से वार?