Ratan kirtaniya 30 Mar 2023 कविताएँ दुःखद एक बूढ़ी औरत जो चलने - फिरने में असमर्थ है फिर भी वह मजदूरी करके अपना पेट पालती है इस कविता के अन्तर्गत मजदूरी का मर्मिक चित्रण है 16041 0 Hindi :: हिंदी
बूढ़ी औरत - बेला की मार बुरी ; औरत कितनी बूढ़ी , करती दिवा में मजदूरी - गिट्टी बिछाती रेल पट्टी में - कर्म - भू बुटीबोरी ; कौन छीना रोटी - भात , मजदूरी कर के - गुजारा उस की दिवा - रात । औरत हो चुकी बूढ़ी - हलात कितनी बुरी , बेला उस की - नाती - पोती संग खेलने की ; पर बेला से लड़ना - झेलने की । जहाँ रेल गाड़ी रुका था ; दृष्टि भी उस पे रुका था , दृश्यमान से देखा मैं ने - उस की नत नयन ने रेल गाड़ी को - अन्तर्यामिनी अभिलाषा से देख रही थी , उम्र में रेल पट्टी में गिट्टी बिछाती ; बूढ़ी औरत - मजदूरी से जीवन बीताती । बिछी गिट्टी सह लेती भीषण बोझ - खुद सम्हाल नहीं पती - जीवन की बोझ , बिछी गिट्टी पे बनी रेल पट्टी- आते - जाते रेल गाड़ी कई - खुद को भी गर्व है , गिट्टी बिछाती - तब रेल पट्टी बनती हैं ; रेल गाड़ी चलती है , धन्य ! तू बूढ़ी औरत - इस उम्र में मजदूरी से गुजारा चलती है । निष्प्राण थी गाल ; मन्द - मन्द चल , श्वेत हो चुकी - शीश के सारें बाल , कमाती तू यहाँ - तेरी बेटा - बेटी कहाँ ; किस ने छोड़ी इस हाल में - देखा दृष्टि मेरा - गिट्टी बिछाती मृत्युकाल में । ना वह तरु - करुण की छाया - भू - धर बहती अनिल - तमतमाता अनल - माया , सीकर ने नहलाया ; भूख - प्यास ने तड़पाया , क्या तू बेसहारा है ? तेरे हालत में - कवि का अन्तर् रोया , तू औरत कितनी बूढ़ी ; सफर में था - रेल गाड़ी जब रुकी थी बुटीबोरी । नत नयन में थी भाषा - अन्तर् से पढ़ा है ; उर में छिपी अभिलाषा - आते - जाते रेल को देखती - तमतमाता घाम में बिछाती ; मोती बनी सीकर ; करती हालत को स्वीकार , ना समझा कोई उसकी भाषा ; वह होंगी प्रभात से भूखी ; हो सके खिला दूँ - अनल पेट की बुझा दूँँ ; सिंग्नल मिलते ही - रेल गाड़ी चला जाएगा ; हे बूढ़ी औरत - तेरे जीवन में दिवा - रात आएगा ; तुझे खाना कौन खिलाएगा । आज पछतावा है - रेल गाड़ी से उतर जाता - फिर ओ मुझे मिल जाती - गृह अपना ले आता , मैं खाता - खिलाता ; जननी की तरह पालता , मैं निर्धन ! नहीं धनवान ; एक बेला खा सकता हूँ - अंश का खिला सकता हूँ । रतन किर्तनीया मो * 9343698231