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मुझे डर लगता है-बहुत डर लगता है

DINESH KUMAR KEER 16 Jan 2024 कविताएँ दुःखद 3036 0 Hindi :: हिंदी

1.मां मुझे डर लगता है . . . .बहुत डर लगता है . . . .सूरज की रौशनी आग सी लगती है . . . .पानी की बुँदे भी तेजाब सी लगती हैं . . .मां हवा में भी जहर सा घुला लगता है . .मां मुझे छुपा ले बहुत डर लगता है . . . .
मां मुझे डर लगता है . . . .बहुत डर लगता है . . . .याद है वो काँच की गुड़िया, जो बचपन में टूटी थी . . . .मां कुछ ऐसे ही आज में टूट गई हूँ . . .मेरी गलती कुछ भी ना थी माँ,फिर भी खुद से रूठ गई हूँ . . .
मां मुझे डर लगता है . . . .बहुत डर लगता है . . . .बचपन में स्कूल टीचर की गन्दी नजरों से डर लगता था . . . .पड़ोस के चाचा के नापाक इरादों से डर लगता था . . . .अब नुक्कड़ के लड़कों की बेख़ौफ़ बातों से डर लगता है . .और कभी बॉस के वहशी इशारों से डर लगता है . . . .मां मुझे छुपा ले, बहुत डर लगता है . . .
मां मुझे डर लगता है . . . .बहुत डर लगता है . . . .तुझे याद है मैं आँगन में चिड़िया सी फुदक रही थी . . . .और ठोकर खा कर जब मैं जमीन पर गिर पड़ी थी . . . .दो बूंद खून की देख माँ तू भी तो रो पड़ी थीमाँ तूने तो मुझे फूलों की तरह पाला था . .उन दरिंदों का आखिर मैंने क्या बिगाड़ा था .क्यों वो मुझे इस तरह मसल के चले गए है .बेदर्द मेरी रूह को कुचल के चले गए . . .
मां मुझे डर लगता है . . . .बहुत डर लगता है . . . .तू तो कहती थी अपनी गुड़िया को दुल्हन बनाएगी . . . .मेरे इस जीवन को खुशियों से सजाएगी . .माँ क्या वो दिन जिंदगी कभी ना लाएगी????क्या तेरे घर अब कभी बारात ना आएगी ??माँ खोया है जो मैने क्या फिर से कभी ना पाउंगी ???मां सांस तो ले रही हूँ . . .क्या जिंदगी जी पाउंगी???
मां मुझे डर लगता है . . . .बहुत डर लगता है . . . .घूरते है सब अलग ही नज़रों से . . . .मां मुझे उन नज़रों से छूपा ले.... माँ बहुत डर लगता है….मुझे आंचल में छुपा ले . . . .? 

2.
'मां मुझे कोख मे ही रहने दो'
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो।
पग - पग राक्षसीं गिद्ध बैठे हैं,
मां मुझे कोख में ही मरने दो।

कदम पड़ा धरती पर जैसे,
मिले मुझे उपहार मे ताने।
लोग देने लगे नसीहत,
फिर से लगे बाते बनाने।
मत करना फिर सौदा मेरा,
खुशी- खुशी विदा होने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

बेटा जैसा समझा नहीं,
बेटी का हक भी मिला नहीं।
मेरे सपनों का पंछी भी,
आसानी से कभी उड़ा नहीं।
खुशियां हुई दामन से दूर ,
जी भर कर आंसू बहने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

बाहर भी निकली लोगों ने,
कामुक भरी नजरों से देखा।
मंजिल तक जाने से पहले,
कौन? खींच गया लक्ष्मण रेखा।
पंछी नहीं मैं पिंजरे की,
खुले अम्बर में उड़ने दो,
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

रीत पुरानी कैसी है ये?
बेटी सिर पर बोझ होती है।
जीते जी ससुराल में भी,
सिसक - सिसक कर वो रोती है।
सदा ही चुप रहना सीखा,
अब तो मुझे कुछ कहने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

चाहा कुछ बड़ा करना तो,
अपनों ने तब हाथ छुड़ाएं।
छूना चाहा अम्बर को तो,
पैर जमीन पर डगमगाए।
लड़की हूं बढ़ सकती हूं,
निरंतर आगे बढ़ने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो। 

बेटा- बेटी एक विधान,
फिर भी क्यों भेद करते हो।
बेटी बचाओ और पढ़ाओ, 
क्यों बनावटी खेद करते हो।
छोड़ो हम पर हावी होना, 
सुखी माहौल में पलने दो।
डरती हूं बाहर आने से ,
मां मुझे कोख मे ही रहने दो।

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