DIGVIJAY NATH DUBEY 19 May 2023 कविताएँ समाजिक #naukari 5528 0 Hindi :: हिंदी
छोटी सी कोठरी में चार पांच होंगे जो जी रहे हैं तपस्या भरी जिंदगी जो पूर्ण कर रहे उस कर्ज को जो बिना लिए भरना है तपती धूप के बाद जब शाम आती है उबल उठता है उस कमरे का संसार जहां चार पांच शरण लिए हुए हैं धधकती तपन से परेशान एक और तपन जला लिया है जो चूल्हे के रूप में कुछ खाने का इंतजाम कर रही है इन दोनो की तपन से ज्वालामुखी भी शर्मा जा रही सुबह होते ही निकल जाना है एक कर्तव्य पे जिसपर टिकी हुई है कइयों की जिंदगानी किस हाल किस भेष किस रूप किस देश क्या काम है नही पता क्या इंतजाम है नही पता कुछ खाया क्या कुछ पीया क्या इन सब की कौन पूछता है बस पूछता है पगार जो देर न होने पाए चाहे आज आए या कल आए काट काट के लंबी जिंदगी काट लिया भरी जवानी बुढ़ापा भी चीखे मार रहा मुझपर भी कुछ रहम कर से लेकिन ये स्वार्थी हृदय उनकी फिक्र में जी रहा जो आश्रित हो चुके हैं भूल भाल के सारे सपने बस इंतजार रहता है सुबह जब काम पे जाना है बस काम पे जाना है मुझे नही पता संसार की दशा बस काम पे जाना है।। दिग्दर्शन !