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मेरी सच की दुकान-कुछ ख़्वाब रखे थे कुछ ख्याल रखे थे

Onkar Verma 29 Jan 2024 कविताएँ समाजिक Value of Truth 2388 0 Hindi :: हिंदी

मेरी सच की दुकान 

कभी मैंने भी एक दुकान लगाई थी
बड़ी शिद्दत से सजाई थी…..
कुछ ख़्वाब रखे थे
कुछ ख्याल रखे थे
कुछ सपनों के कोने थे
कुछ खुशियों के खिलोने थे……………….
कुछ किताबें थी
कुछ पुरानी यादें थी
ईमान भी रखा था
सच का सामान भी रखा था………….
रोज़ दुकान लगाता
शिद्दत से सजाता
रोज़ हर सामान को साफ करता
रोज़ उन पर पड़ी धूल झाड़ता………………..
कभी खुशियों को उठा उठा कर रखता
कभी सपनों को सजा सजा कर रखता…
कभी ख्वाबों को दिखाता
कभी रंग बिरंगी किताबों से लुभाता…… …..
सभी हैरत भरी नज़रों से देखते
पर कोई ग्राहक नहीं आता…………………
मुझे पागल समझ
आगे बढ़ जाते
अगली दुकान की सीढ़ियां चढ़ जाते…………..
जहां झूठ और फरेब बिकता था
लोभ और लालच दिखता था
जहां सच का कोई सामान नहीं था
बेचने वाले का कोई ईमान नहीं था………….
मैं हैरत भरी आंखों से देखता रहता
सामने वाला झूठ का सामान बेचता रहता….
मैं कभी अपने सामान को देखता
कभी झूठ की दुकान को देखता…….
किताबों के पन्नों में उलझा रहता
शब्दों को बखूबी पढता था
भावों को भी बखूबी समझता था
बस लोगों के चेहरों को पढ़ने का हुनर नहीं आया……………..
तभी तो अपना सामान नहीं बेच पाया 
अब किताबें छोड़, चेहरे पढ़ने लगा हूं
लगता है अब जाके
सही काम करने लगा हूं..............

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