‘ हाय विधाता ! कैसी विडंबना है ? कोहिनूर का हीरा कोयले की खान में रहकर कभी शोभा नहीं पाता। पर ये हीरा क्या करे ? इसका तो कोयले की खान के सिवाय कुछ है भी नहीं इस दुनिया में। है तो केवल अंधेरा और अंधेरा। ‘ चारों ओर की भीडभाड और उनमें ये बातें। देखते ही देखते हीरा का कटोरा सिक्कों से भर गया। अपनी मां के अंतिम संस्कार के लिए शायद ये पैसे काफी होंगे।
एक सात वर्ष का बच्चा हीरा। एक छोटी सी झोपड़ी में ही उसका पूरा संसार था। वह और उसकी मां , दोनों ही एक दूसरे का सहारा। एक हाथ छोड़ दे तो दूसरा स्वयं ही तड़पकर मर जाए। और फिर अंजना माता है , उसका कर्तव्य है कि वो अपने बालक का पोषण करे। इसीलिए शायद वो घर-घर काम करके अपना और अपने बच्चे का पेट पालती है। इतनी गरीबी है कि दो वक्त की रोटी भी बड़ी कठिनाई से नसीब होती है। घर में इतना सामान है की कोई जानवर भी उससे ज्यादा वस्तु संग्रह कर के रख सकता है। ऐसी दयनीय स्थिति है फिर भी उसने अपने लाल के लिए कुछ रंग , ब्रश और कुछ कागज़ हमेशा रखती है। हीरा वास्तव में हीरा है। ऐसी कलाकृतियां बनाता है मानो अभी बनाया गया चित्र सजीव हो जाएगा।
हीरा के मन में इच्छा है कि वह इतना बड़ा आदमी बने कि उसकी मां को कहीं काम करने की आवश्यकता ही ना पड़े। परन्तु वह छोटा सा अबोध बालक क्या जाने कि कोयले से निकलकर हीरा बनने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है। परंतु अंजना इससे अनजान न थी। उसे भय था कि वो अपने सौम्य बालक को कैसे पालेगी ? उसकी शिक्षा की व्यवस्था वो कैसे करेगी ? इस युग की शिक्षा मां- बाप को पूर्ण रूप से व्यथित करने वाली है। इसी भय से उसने कुछ धन एक बड़े जमींदार से कर्ज पर के लिया परन्तु इतने धन से कुछ भी ना हो सकता था। ज्यादा धन ले तो उसे लौटने के लिए वह अपना सम्पूर्ण जीवन खो देगी। अशांत मन से सारा दोष भाग्य पर भी ना मथ सकती।
एक दिन अंजना काम करके लौटी। आवाज़ लगाई :- “हीरा ! एक गिलास पानी ला दे बेटा। “और कहकर नीम के नीचे सिर झुकाकर बैठ गई।
हीरा पानी लेकर आया और बोला “पानी की मां।” परन्तु माता ने शीश ना उठाया। फिर से प्रयास करने पर भी मां निरुत्तर हो रही। हीरा जान गया कि अब उसे अकेले ही दुनिया में रहना पड़ेगा। शायद अब उसे दुलारकर खाना खिलाने वाला कोई ना होगा। उस छोटे से कोमल हृदय पर तो बज्र सा गिरा। कोन अब उसे इतने प्रेम से सुलाएगा? जीवन की बड़ी से बड़ी पीड़ा भी अब वह किसी से ना ख पाएगा। वो किसी के सामने अब फूट-फूट कर तो भी ना सकेगा। एक साथ इतनी जिम्मेदारियों का पहाड़ उस पर टूटा था। परन्तु अब उसका पहला कर्म माता की अंतिम क्रियाएं करना था। हाय विधाता! कफ़न लायक भी पैसे नहीं हैं बेचारे के पास। उसे अनुभव हुआ कि अपनी कला का उपयोग करने का सही समय आ गया है। सड़क के किनारे माता का निर्जीव तन रखकर एक चित्र बना रहा है। चित्र भी ऐसा की लगता नहीं कि वह अत्यंत तीव्र पीड़ा का सामना कर रहा है। चित्र में एक माता अपने बच्चे को पीठ पर लादे पत्थर तोड़ रही है। शायद वो इस चित्र से अपनी कहानी दराशा रहा है।
मैं भीड़ के अंत में खड़ा था। ऐसे शब्द सुनकर मेरी इच्छा हुई की ऐसे अनुपम बालक को तो जरूर देखना चाहिए। मैं भीड़ से टकराते , धक्का खाते बच्चे तक पहुंचा। मेरी तो आंखें भर आईं । इतना छोटा बालक और ऐसी कर्तव्य परायणता। मैंने एक दस का नोट निकाला और उस कटोरे में डाला। शायद यह सबसे बड़ा नोट था उस कटोरे में। मैं लौट पड़ा। पर वह बालक मेरे मन से हटा नहीं। न उसकी कर्तव्य निष्ठा, उसका स्वाभिमान और ना ही वह शिक्षा जो उसका बनाया चित्र दे था था।