युवा दिवस पर विशेषःः
युवाओं के प्रेरणास्त्रोतःःस्वामी विवेकानंद
आज का युवा दिग्भ्रमित है कि वह आध्यात्मिक परंपरा को अपनाए कि आधुनिकता को आत्मसात करे। उसे बचपन से घुट्टी में पिलाया जा रहा है कि हमारी परंपराएं, प्रथाएं सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिए उसे अपने अतीत की ओर लौटकर अपनी परंपराओं को पुनर्जीवित करना चाहिए।
इसके विपरीत, जब वह जीवन संघर्ष में आगे बढ़ता है, तो उसको आधुनिकता का वरण करना पड़ता है, जिसमें परंपराओं के आगे स्वच्छंदता व स्वतंत्रता को अपनाना जरूरी समझा जाता है।
यदि हम स्वामीजी के विचारों को ध्यानपूर्वक मनन करें, तो इस ऊहापोह का जवाब उसमें छिपा हुआ मिलता है। उनके ओजस्वी विचार हमारे मार्गदर्शक बन सकते हैं।
वे आध्यात्मिकता के जिस तरह प्रतिमूर्ति बन गए थे; चाहते तो हिमालय की कंदराओं और गुफाओं में बैठकर गहन तपस्या में लीन हो सकते थे?
जैसा कि आजकल के संत-महंत किया करते हैं और साल में एक बार किसी कुंभ, महाकुंभ या अर्धकुंभ में दिख पड़ते हैं। उन्हें दीन-दुनिया तथा अर्थनीति, राजनीति या समाजनीति से कोई सरोकार नहीं रहता।
यहां तक कि वे समाज व परिवार तक का परित्याग कर चुके होते हैं। अकर्मण्यता उनपर हावी रहती है और वे मेहनत से जी चुराते हैं।
इसके उलट, स्वामीजी सामाजिक सरोकारी में रहकर दरिद्रनारायण व दीन-दुःखियों के दिलों में उतरना उचित समझते थे। वे कर्महीनता की अपेक्षा कर्मरत रहना, समाज के लिए हितकर मानते थे।
इसके लिए उन्होंने भारत भ्रमण किया और राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने कर्मयोग की शिक्षा देकर युवजनों के मन में ज्वाला प्रज्वलित किया।
वे धार्मिक आडंबर व छल-प्रपंच से मुक्त समाज का निर्माण करना चाहते थे। वे चाहते थे कि देश में चरित्रवान युवाओं की फौज खड़ी हो, जो देश को धर्म और जाति के आधार पर बांटनेवालों को मुंहतोड़ जवाब दे सके। वे चाहते थे कि भारत, संयमित युवाओं के उज्ज्वल चरित्र से जगद्गुरु बने।
इसके लिए उन्होंने कहा था,‘‘आधुनिक सभ्यता की मांग है कि युवा उत्साहपूर्ण जीवन के लिए आत्म-निवेश करे।’’ …और यह आत्म-निवेश उत्तम चरित्र, ईमानदारी, सदाचार और सद्व्यवहार के सिवाय और क्या हो सकता है?
वे आधुनिकता के पक्षधर थे, जिसमें शिक्षा, ज्ञान और विवेक का समावेशन था। लेकिन, वे उच्छृंखलता को राष्ट्र व समाज के लिए घातक मानते थे। वे हिंदुत्व की कूपमंडूपता और घिसी-पिटी अवधारणा के हिमायती नहीं; अपितु परिवर्तन के हिमायती थे। वे परंपरा का निर्वहन तो चाहते थे, लेकिन आधुनिकता के साथ उसका सामंजस्य ऐसा हो, जो सबके लिए हितकारी रहे।
ये भारतीय युवजन की दिल की धड़कन बन चुके थे। युवाओं की संस्कृति व सभ्यता को विकसित होते देखना चाहते थे। वे गुरु-शिष्य परंपरा के तपोनिष्ठ शिष्य थे।
जब उन्होंने होश संभाला, तब पाया कि उनके अंदर विद्रोह की आग है। वह सब कठिनाइयां, दिक्कतें व समस्याएं हैं, जिसका सामना आज का मध्यमवर्गीय युवजन करता है।
इसके निदान के लिए उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना और अज्ञानता, दरिद्रता, जड़ता और दुबर्लता से निकलने के लिए युवाओं का आव्हान किया।
उनका धर्म राष्ट्रचेतना, राष्ट्रभक्ति और मानवता के लिए था। धर्म के माध्यम से वे राष्ट्र में, खासकर युवावर्ग में नवचेतना का संचार करना चाहते थे। यही वजह है कि देश उनकी याद में उनकी जन्मतिथि को ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाता है।
वीर सुभाषचंद्र बोस ने उनके संबंध में कहा है, ‘‘स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजित करनेवाला धर्म था। नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगाई, उसके अतीत के प्रति गौरव और भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की।’’
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