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चलकर गिरना गिरकर चलना

Amit Kumar prasad 30 Mar 2023 कविताएँ हास्य-व्यंग This poem is giving motivation of every struggle person. 16851 0 Hindi :: हिंदी

चलों तो राह हर वक्त नयी, 
क्या धरा पड़ा दोहराने मे! 
चलकर गिरना गिरकर चलना, 
है धरा पड़ा नज़राने मे!! 
                         खाकर ठोकर गिरता है मनुज, 
                          फिर उठता है चलने के लिए! 
                          राहें न छोड़ बस राह परख, 
                          है नाज़ परख दिखलाने मे!! 
उठकर गिरना गिरकर उठना, 
है सफलता का दृश्य नज़राने मे! 
है दृश्य चेतनाओं का अचल, 
कर्म धरा कि अविचल हैं!! 
                    है दृश्य मनोहर अध्म प्रबल, 
                    संघर्ष धरा कि नि:छल है!
                    अधिकाधिक इच्छाओं कि चेतना, 
                    मानस को चंचल बनाता है!! 
संतोष जगत का अहम कर्म, 
लेकर मानस बड़ जाता है! 
देख- देख अपने पिछे, 
चलना न चेतन कर्म भया!! 
                       लगा निरन्तर मंजील पे ध्यान, 
                       संघर्ष आभा बिखराती है! 
                       कर्मवीर का कर्म अकेला, 
                       लाखो भय भ्रमित भयकारक हैं!! 
पर कर्म अकेला बाहुबल, 
जो निज जगती का उद्धारक हैं!
चलो अचलो मे चाल नयी, 
संघर्ष बनाकर महा अचल!! 
                      खामोशी कर्म कि धारण हो, 
                      सफलता कर दे शोर प्रबल!
                      बुन्द- बुन्द गिरता है जल, 
                      खमोशी नदियां धारण करती!! 
चलती वसुधा पर प्रतिरोध हिन, 
अमरित धारा वंटीत करती! 
जब रुके धरा के शख्तियों से, 
तो करता संगठन शोर अचल!! 
                    निज चेतन कि उत्कंठा से, 
                    संघर्ष ने जगती धारा है! 
                    अचल कर्म का बाहुबल, 
                    आशाओं का अहम सहारा है!! 
खाकर ठोकर राहों मे जगत, 
छोड़े न चलने का कर्म कभी! 
पड़ती मानस मन मे चलने कि चेतना, 
चलना मानस शिख जाता है!! 
                            है ज्ञान चेतना बढ़ने कि, 
                            पर राह नुतन अविधाओं कि! 
                            सुझबुझ है मानस शिक्षा, 
                            कर्म ज्ञान विधाओं कि!! 
करता है नमन हर हार उसे, 
जिसके कर्मों से हिली चाह! 
चाहत को दबाकर चलता है, 
करने कंवलीत भारत कि धरा!! 
                     है अमर रहा वो कर्म प्रबल, 
                     क्या धरा समय को गवाने मे! 
                     चलो तो राह हर वक्त नयी, 
                     क्या धरा पड़ा दोहराने मे!! 
चल रहा समय भी हो के मग्न, 
देख समा के अफसाने मे! 
चलकर गिरना गिरकर चलना, 
है धरा पड़ा नज़राने मे!! 

कवी :- अमित कुमार प्रशाद
কবী :- অমিত কূমার প্রশাদ
Poet :- Amit Kumar Prasad

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