कविता केशव 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक औरत की सहनशक्ति की कोई सीमा नहीं है 72208 0 Hindi :: हिंदी
इतने कष्ट सहकर दुनिया को जन्म देती है औरत! फिर क्यों दुनिया में आने से पहले ही मारी जाती है औरत! टूटे- फूटे खंडहर को भी मकान बनातीं है औरत! फिर क्यों इसी मकान में अपनी जगह ढूंढती है औरत!! खुद के सपनों का त्याग करके अपनो की पहचान बनातीं है औरत! फिर क्यों उन्ही अपनो के बिच मे अपनी पहचान भुला देती है औरत!! हर परिस्थिति को सहन कर जाए, कभी नहीं झुकती है औरत! फिर क्यों अपनो की बेरूखी नजरों के सामने झुक जाती है औरत!! पूजते है पत्थर की मुरत को ,क्यों जिन्दा नहीं दिखती है औरत! जिन्दा रहते हुए भी, अपने वजूद के लिए तरसती है औरत!! खुद को जलाकर दुसरो को रोशन करती है औरत! फिर क्यों इसी समाज में दहेज के लिए जलती है औरत!! क्यों नहीं समझते ये बेगैरत लोग, इस दुनिया की नींव है औरत! अगर नींव हिल गई, तो दुनिया को हिला देती है औरत!!