Raj Ashok 07 Dec 2023 कविताएँ समाजिक आबरू 9471 0 Other :: Other
आबरु, की तख्ती पे लिखे है। बेगुनाह ,भीड़ के गुनाह नासमझ , जमाने ने ,अफवाहो़ कि आँधी मे सच, को समझना भी जरूरी नहीं समझा । एक ,चाहत की चिंनगारी ने जात, पात घर्म सब समझाया । पर ग़ुरूर था। ये कद्र ना कर सका अरमानो की बस उलझ गए घागों के सीरे आपस मे और उलझते चले गए