Santosh kumar koli 27 May 2023 कविताएँ समाजिक गर्हण ( जुगुप्सा) 5323 0 Hindi :: हिंदी
पांच क़िस्म के लोग मिलते, निंदा बाज़ार में। कभी-कभी काम बिगड़, बहता निंदा भुजबल धार में। कब पूर्वाचल से चला रवि, फैली कब अस्ताचल लाली। काज से काज, कोई हो राज, पहला करता नहीं जल्प जुगाली। दूजा, दलदल दृष्टि पर रखता, पर घुसता नहीं है। दिल दिमाग़ रखता खुला, मन मुसता नहीं है। तीजे को कुछ देखकर, कुछ- कुछ होता है। सोच, सोज़ से, न जगता न सोता है। चौथा, कुछ खुद के, कुछ दूसरे के, बढ़ावे से आगे बढ़ता है। अनल अनवस्थ, हुआ, अनहुआ, गड्ड- मड्ड गढ़ता है। तरेरा तरारा, तर्क- वितर्क, झगड़ता, कड़कता, अड़ता है। देयादेय हाथों-हाथ, कहने, सुनने तक ही सिमटता है। आगा, तागा त्यागकर, तागा मारता है। गिरने की हद, हद से नीचे, यहां दंभ काम करता है। निंदक, निंदित न निंदासा, निंदा से काम खरा होता, लाजवाब होता अगर तू, गिरे को उठाने गिरा होता। गिरे को उठाने गिरा होता।