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इस पर व्यंग्य ज़रूरी था

आकाश अगम 30 Mar 2023 आलेख हास्य-व्यंग #इस पर व्यंग्य ज़रूरी था #व्यंग्य क्या है #अध्यापकों पर व्यंग्य #आकाश अगम #Vyangy kya hai #vyangy on school #हास्य व्यंग्य #Hasya vyangya #gadya lekh #गद्य #विद्यार्थियों के पाँच लक्षण #Five property of students 99043 0 Hindi :: हिंदी

विद्यालय, वो स्थान जहाँ एक अबोध बालक जाता है , और तेजस्वी, बद्धिमान बन कर लौटता है। जीवन के मर्म को समझता है। लेकिन ये बातें गुरुकुल तक ही रहीं। गुरुकुल का स्कूल में परिवर्तन, इन सब बातों को मिथ्या साबित करता है। स्कूल में बच्चों की जिज्ञाशा को दबाया जा रहा है। उन्हें प्रश्न पूँछने से रोका जा रहा है। शिक्षक हर बात अपने फायदे में बोलते हैं। ये व्यंग्य ऐसे ही एक विद्यालय पर है जहाँ एक शिक्षक एक बच्चे पर अपना दबाव बनाता है।


आज सुबह मैं ख़ुशी ख़ुशी स्कूल जा रहा था क्योंकि जो कुछ कल बताया गया था वह सब मुझे कंठस्थ था। वास्तविकता ये है कि स्कूल में कुछ पढ़ाया ही नहीं जाता हिंदी तथा गणित के अलावा।
ग्यारह बजे का स्कूल और दो बजे छुट्टी, बीच में एक घंटे का लंच।
लंच से पहले हिंदी और बाद गणित पढ़ाया जाता।

मैं पहुँच गया और पूरे आत्मविश्वास के साथ बैठा हुआ था कि तभी हिंदी पढ़ाने के लिए अध्यापक महोदय का आगमन हुआ।

-गुड मॉर्निंग सर।
-सैम टू यू एंड सिट डाउन।
-थैंक यू सर।
  वे बोले- देखो  परीक्षा में कुछ ही समय शेष है इसलिए जी जान लगा कर पढ़ाई करो। कोई अध्यापक यदि नहीं आता है , तो उसे बुला कर लाओ और समझ न आये तो पूँछा करो।

अब चलो हिंदी की किताब निकालो और बताओ क्या पढ़ायें ?
जब उन्होंने पूँछा , तो मैंने जयशंकर प्रसाद कृत 'कामायनी' महाकाव्य से हमारी पुस्तक में श्रद्धा-मनु शीर्षक से संकलित कविता पढ़ाने को कहा।

वास्विकता ये है कि उन्हें ज़्यादा कुछ आता जाता नहीं था। वे कविताओं की व्याख्या भली प्रकार से नहीं कर पाते थे। जब भी काव्य पढ़ाते, तो बच्चों से ही पूँछने लगते और न बता पाने पर डाँटते। हर कविता का एक ही अर्थ बताते- "जीवन में बड़ा दुःख है । हमें संकटों का सामना करना चाहिए फलाना ढिमका।"

इसलिए वे बोले - देखो, एक महीने बाद परीक्षा है इसलिए वो पढ़ो जो इम्पोर्टेन्ट है और इम्पोर्टेन्ट क्या है , ये हम जानते हैं। इसलिए गद्य निकालो हम गद्यांश पर टिक लगाए दे रहे हैं और तुम सब इन्हें रट लो एक दम। फिर वे बैठ कर निशान लगाने लगे।

मैंने कहा सर , ये तो आसान हैं, इन्हें तो आराम से कर लेंगे , आप काव्य पढ़ाइये न।
वे बोले- अरे, सुनो तो, ये महत्वपूर्ण हैं । चलो देखते हैं तुम्हें कितना आता है। और उन्होंने किताब से देख कर बहुत से प्रश्न मुझसे पूँछे तथा मैंने सभी का सही उत्तर दिया।

थोड़ी देर बाद मैंने फिर धीरे से कहा- सर, काव्य नहीं,  तो संस्कृत ही पढ़ा दीजिये। अभी तक खोल कर भी नहीं देखी गयी।
मेरे द्वारा इतना कहते ही वे भड़क गए- चुप रह बत्तमीज़, गुरु से ज़ुबान लड़ाते शर्म नहीं आती तुझे। दो चार छिट पुट कविताएं क्या लिख लीं, ख़ुद को बाहूबली समझने लगे, बाहूबली। ये बढ़ाओ, वो पढ़ाओ , हमें तो साले नचनियाँ बना दिया। जब सारे निर्णय तुम्हें ही लेने हैं , तो साले हम क्या यहाँ बैठ कर माठे पागें। तुम्हीं पढ़ा लो न, बड़े विद्वान बने फिरते हो, आये हो सरस्वती की गोद में से उठ कर, नालायक कहीं के।

मैंने बिल्कुल दबे स्वर से कहा कि सर, मैं कहाँ कोई निर्णय ले रहा हूँ। आप ने ही तो पूँछा था क्या पढ़ायें ?
वे और गरम हो गए-  चुप नॉनसेंस, भाषा को मधुर रखो, मधुर।
वाणी जितनी मधुर होती है न विश्व में उतना ही नाम होता है।

एक वो अर्जुन था जो गुरू की हाँ में हाँ मिलाता था और एक ये नालायक है। कुछ भी पढ़ाओ , कोई न कोई प्रश्न ज़रूर करेगा।
कभी कुछ पढ़ा लिखा है ठीक से ? शास्त्रों में  पाँच लक्षण बताये गए हैं विद्यार्थी के-

काक चेष्टा-  कौवे जैसी चतुराई। यानि जब कोई गुरू की निंदा करे तो उसे कौवे की तरह दबोच लो।

वको ध्यानं-  वगुले जैसा ध्यान। शिक्षक जो पढ़ाये उसमे लीन हो जाना , न कि प्रश्न पूँछ कर ध्यान भंग करना।

स्वान निद्रा-  कुत्ते जैसी नींद। जैसे कर्ण अपने गुरू को सुलाते वक़्त ख़ुद नहीं सोता था। वैसे ही शिक्षक की निद्रा में बाधा न आने देना ही तुम्हारा कर्तव्य है।

अल्पाहारी-  कम भोजन। गुरु, गुरु होता है और चेला, चेला होता है। ज्ञान के साथ साथ गुरु ताक़त में भी बड़ा होना चाहिए। इसलिए चेला को कम भोजन लेना चाहिए।

और आख़िरी गृहत्यागी- विद्यार्थी को घर से दूर रहना चाहिए ताकि शिक्षक जब पीटे, तो बच्चा घर पर न बता सके।

मग़र तुम, तुम साले एक भी नियम मान लेते तो थोड़ा फ़क्र होता कि हमारे विद्यालय का छात्र है। पूरे बने बनाये कुत्ते हो फिर भी साले वैसी नींद नहीं लेते।
इसको अब हम अलग से पढ़ायेंगे , बताओ...
इतने सालों से पढ़ा रहे यहाँ। पढ़ा कर चले जाते थे , बच्चा एक शब्द तक नहीं पूँछता था, वो पास नहीं हुए क्या। ये साले एक अनोखे निकल कर आये हैं सूर्यपुत्र कर्ण।

मैं निस्तब्ध रह गया। कदाचित महाकवि दुष्यंत ने ठीक ही कहा है-

"जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी , हम झुनझुने हैं।।"

मेरा मुख उनसे कुछ कहने के लिए खुल ही रहा था कि तभी वे किताब पटक कर चले गए।  और मैं उनसे कहना चाहता रहा-

"आप अपराध नहीं आप शरारत करते,
हमको छोटा न करो आप बड़ा कद करते,
आपकी दुम से ही आदर्श बँधा करते हैं,
हाँ, चलो मान लिया हम ही सदा हद करते।।"

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