Ratan kirtaniya 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक आज के समय में मानवता मिलना मुश्किल है इस कविता में मनावता की खोज का मर्मिक चित्रण है 15093 0 Hindi :: हिंदी
नत नयन मेरी दृष्टि - दो नयन में ! दो बूँद अत्रु लेकर ; घर की चूल्हा देखकर , ऐ कैसी तेरी सृष्टि - रे भगवान , हे अल्लाह , ठंड पड़ चुकी थी चूल्हा ; अंतरात्मा कँप गया देखकर चूल्हा , उर मेरा टूट के चूर - चूर ! मैं शिति दीन भूखा - प्यासा सोने को मजबूर ! जीवन की ऐ कैसी तरंगाघात ; अगर एक वक्त का मिलता ! रोटी - भात , ना देखा ना पूछा कोई मेरा हाल - आ गया ऐसा काल - मानव है ! मानवता ना रहा सृष्टि मेंं ; खोज है उसका - इस दृष्टि को - इस सृष्टि में , मेरा अधूरा खोज है इस सृष्टि मेंं । आडम्बर में व्यस्त सारें - कोई जीऐं या मरें - काम ना हमारे , मुहँ मोड़ लेता सब ; शिति दीन को सहारा - कोई अमीर देता कब , भूख से तड़प - तड़पकर - चूहें मर जाऐंगे सारे - पेट के अन्दर हमारे , बचा है निकलना प्राण हमारे ; मानव की मानवता खोया कहाँ - उसे खोज निकालूँगा ; बता मुझे तू छुपा है कहाँ ? तुझे खोजता मेरा दृष्टि - अगर ढूँढ लूँ तुझे - बताना मुझे - तेरा नया क्या नाम दूँ ? इस कलियुग सृष्टि मेंं । होकर निराश - खोके आश - व्योम तले बैठ कर देखा ; व्योम मंडल खींची थी - अमूल्य मनोहर रेखा , मिल के सात रंग - व्योम का शोभा बढ़ाता ; आज शिति दीन और अमीरों का खाई ना होता - सृष्टि का मिलकर शोभा बढ़ाया होता , अमीर - शिति दीन के अन्तर कहोंं या मिलन - जैसे तेल - पानी का मिलन ; ऐसे मिलन से सृष्टि का शोभा ना होता ; हे मानव ! तुझे लज्जा नहीं आता । औ मैं ने देखा - गृह -गृह हर्ष उल्लास ; जग मुझ लाचार से अपरिचित ; मैं शिति दीन भूख प्यास से विवश ! मिल जाता रोटी भात ; क्या मिला सृष्टि मेंं ? ना मिला ! जो देखा दृष्टि मेंं , मुझ पे ना आया दया तो क्या पाया ? सिर्फ मिलता आघात । मेरे नयन जल से धोऊँ चरण उसका - सृष्टि का पालन हर है उसका - सुन रे हे श्री हरि ! विनती हमारी - मानव की रचना जिसने किया ; मानवता को तू ने कहाँ किया ? तुम से हुई बड़ी भूल - मानव राक्षस को समझने मेंं ना कर भूल ! तेरे सृष्टि की बाग मेंं - काटें हैं मत समझ तू फूल , रचनाकार मानवता कहाँ भूला है - सुन हे ब्रह्मा ! मेरा खोज है मानवता कि - तू ही बता ! मानवता कौन से बाग मेंं खिला हैंं ; मानव की रचना है तेरा हाथ का - मानवता को कैसे तू भूल गया ; दे जबाव इस बात का । होकर मैं निराश - लेकर मन मेंं आश - जा बैठा द्रुमों की मृदु छाँव में ; तम तमाता सृष्टि मेंं - भीग चुका सीकर की वृष्टि मेंं , सुन रे निष्ठुर दुनिया वाले - जलता - बुझता आशा हूँ ! खून से लथपथ पाँव में ; पड़ गयें पाँव में छाले - इस से भी बड़ा है घाँव हमारे - खोज अधूरा रहे गयेंं हमारे - मानव - मानवता खोया हैं सारे । ना मंजिल ना आश - आगे बढ़ने लगा होकर उदास - खोज था रोटी - भात की ; औ बन गया मानवता की - मुश्किल राहों में चल रहा हूँ ; मैं जल रहा हूँ ऐसी आग में - अंतर्यामिनी की अप्रणयण विचार बाग में , अमीरों पे नत नयन ठहरा ; उस से मिला जो चोट - है वहींं सबसे गहरा ; बस ठोकर खा कर - विचार को वापस मुड़कर - अत्रु नयन लेकर - गृह की ओर वापस लौट रहा हूँ । मैं जानता क्या बीता है ? उर की आधि - व्याधि - उत्पीड़न का व्रज - हुंँकार ; रे जग वाले - भगवान , अल्लाह , माही को पूजने वाले ! आस्तिक - नास्तिक सुन रे सारेंं ! विवेकानंद और मादर टेरेसा की छवि ; मत भूलों महात्माओं थे कभी - लेकिन भूल गया अभी - आज रतन बन के कवि - साहित्य के पन्नों में ; लिखेगा हक़ीकत की छवि । सुन रे अमीरों - आज तेरा दिन ! मेरा रात है ; बेला पँछी पर से उड़कर - किस पेड़ की किस डाली पे - जा बैठेगा ; पता तुझे ना मुझे , लेकिन ऐ हक़ीकत बात है - भगवान , अल्लाह , माही तेरे निकट है; ऐसे भी फूल है सृष्टि मेंं - ना मिले ओ किसी बाग में ; कभी तू ने शिति दीन को खिलाया - क्या पता तुझे ? जलता पेट भूख की आग मेंं ; जहाँ सब जलता है - शिष्टाचार वहाँ खिलता है ; समझले उसका इशारा - कमल दलदल में महकता -खिलता है , हीरा कोयला की खानों में ही जन्म लेता है । शिति दीन की सेवा मेंं - परात्मा के आशिष है छुपा ; मानव होकर मानव का ना आया काम - हे मानव ! मत ले तू दुबारा जन्म ; तू मानव है या क्या बता दे तेरा नाम ? मेरा खोज रहा अधूरा - मैं करु चरण वन्दना उसका - जो खोज को पूरा करें उसका - चरणों में समपिर्त कर दूँ - तन -मन ऐ जीवन सारा , कोई तो बताओंं - कब पूरा होगा खोज हमारा ? रतन किर्तनीया मो *9343698231