Anany shukla 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक शीतल शीतकारी hva 98614 0 Hindi :: हिंदी
शीतल हवाएं शीतकारी यौवन बिखेरती जग में, ले रज कड़ों को हुई उड़ती प्रकृति से खेलती जग में। पेड़ पत्तियों को सदा झूला झुलाती हुई, चलती घटों को छाटकर मन को डुलाती हुई। बादलों को घुड़कवती भू की भीषण प्यास को, झुलती झुलाती धरा की स अर्थ करती आस को। मगर धोखाधड़ी करती चंचला बनकर कभी, नचाती हो अपनी कनिष्ठ पर सहज ही ठनकर कभी। चाहो जो तुम तो हम घर में ही कैद कैदी भांति हों, चाहो तो घर में ही रहे या निर्वसित इस भांति हों। जल मग्न हो सारा जगत तुझमे सदा समा जाये, नीला निरंतर नभ सरिस जगत को हम देख पाएं।