Rupesh Singh Lostom 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक जुल्म के आगोश 8974 0 Hindi :: हिंदी
जुल्म के आगोश थोड़ा थोड़ा आशमान पिघल रहा बूंद बूंद को तरस रही धरती सागर पर्वते निगल रहा प्रकृति तिल तिल मर रही नियति के गूंज से नियति खामोस हैं जुल्म के आगोश में सत्य निःशव्द हैं सच पे झूठ का हर तरफ जैकार हैं बेड़ियों में उलझा न्याय के परिधान हैं टुकड़ों में बट गया देश के संबिधान हैं न्यायलय विद्यालय कार्यालय या फिर चाहे हो मंत्रालय भ्रस्ट का बोल हैं झोल हैं