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नादान सी वो, मासूम थी वो एक ख्वाब था उसका, परेशान थी वो l

Sachin 12 Apr 2023 कहानियाँ समाजिक 11509 1 5 Hindi :: हिंदी

मैं कुछ नाश्ता करने के बाद, मेट्रो से अपने दफ्तर जाता था। मैं  मेट्रो गेट की ओर देखा, जहाँ वो छोला - कुल्चा वाला अपना ठेला लगाता था।

तभी मैंने अपनी रफ्तार में कुछ कमी महसूस की, मानो कोई मुझे अपनी ओर खींच रहा हो, पीछे पलटा तो देखा एक छोटी बच्ची मेरे जीन्स के साथ लगी पड़ी थी।

उसने एक छोटी - सी लाल रंग की फटी पुरानी फ्रॉक पहन रखी थी जो उसके हालात अपने आप बयां कर रहे थी ।

"साहेब ! कुछ पैसा दई दो, दो दीना से कुछ नहीं खाया । दई दो न ! आपके बच्चे खुश रहे, पढ़ें - लिखे आगे बढ़े। "

- छोटी बच्ची ने मुझसे कहा ।

मैं यह सुनकर चौंक गया और सोचने लगा,

"काहे के बच्चे ! मेरी तो शादी भी नहीं हुई। फिर उनके पढ़ने-लिखने और खुश रहने का तो सवाल ही नहीं उठता। ये शब्द किसने इसकी इस छोटी - सी जुबान पर डाले होंगे ? जबकि मासूमियत आज भी इसके चेहरे पर अपना डेरा जमाये हुये है । इसे पैसा दे देता हूँ । नहीं, ऐसा नहीं कर सकता !

कहीं ऐसा करके मैं इसके भीख मांगने की प्रवृत्ति को बढ़ावा तो नहीं दे रहा ? नहीं, इसे एक भी पैसा नहीं दूंगा ! इसे कुछ खिला देता हूँ। बेचारी ने वैसे भी दो दिन से कुछ नहीं खाया !"

मैंने उससे पूछा,
"तुम कुछ खाओगी ?"

उसने सहमति में अपना बड़ा सा सिर हिला दिया। -

मैं उसे छोले - कुल्चे वाले ठेले पर ले गया।

"तुम क्या खाओगी ?"

"मैं आलू - पूड़ी के साथ वो सोयाबीन वाली सब्ज़ी, आचार, सलाद और एक ग्लास रायता लूँगी।"

छोटी बच्ची ने कहा तो मैंने सोचा,

"भाई ! इसने तो पूरा मेनू कार्ड रट्टा मार लिया है।"

मैंने पूछा,

"और कुछ मैडम जी ?”

उसने कहा,

'बाद में बटाऊ ।'

फिलहाल मैंने अपने लिए छोले कुल्चे बोले और उसके बनाने का

इंतज़ार करने लगा।

मैंने उससे पूछा,

"तुम यहाँ कहाँ रहती हो और तुम्हारे मम्मी- पापा कहाँ है ?”

उसने कहा,

"हम इहाँ मेट्रो के लगे रहत रहनी, माई के संगे ।"

"और तुम्हारे पापा कहाँ है ? क्या वो कुछ नहीं करते ?"

"पापा... तो नहीं हैं।"

"मतलब ?"

"मम्मी क़हत है पापा ऊपर गए हैं। खूब सारा खाना और पैसे लावे खातिर, फिर हम का कबहुँ कुछ मांगे के न मांगे।

पता नहीं कैसे, ये बात वो छोटी सी बच्ची एक मुस्कान के साथ कह - गयी। पता नहीं क्यों, ये बात मेरे आँसू स्वीकार नहीं कर पाये और इस बात का विरोध करने बाहर चले आए। मैंने उन्हें किसी तरह रोका और उसकी इस बात पर मैं बस इतना ही कह पाया,

"तुम कुछ और खाओगी ?"

तभी छोले कुल्चे वाले ने हमारा नाश्ता परोस दिया, मेरे छोले कुल्चे और उसकी आलू - पूड़ी रायते के साथ।

वो तेज़ स्वर में बोली,

''अरे ! साहेब किता खिलाओगे? का चाहते हो हमरा पेटवा फुट जाए ! अपना पेट देखो, कदू बनने वाला है । जादा पूछोगे तो मैं इसकी सब्जी बना के खा जाऊँगी।"

उसकी इस बात पर मुझे हँसी आ गयी ।

मैंने व्यंग्य में कहा,

"तुम सब्ज़ी बना भी लेती हो ?”

" और का न ! जब माई बीमार पड़त है, तब हमए बनाईथ । ऐसे का ताक रहे हो ? बहुत निक बनाईथ ! कभी आवो हमरे टेंट पे।"

मैंने कहा,

"टेंट पे ?"

" अरे ! हमरा घर । तुम्ही लोग तो उसे टेंट बोलते हो न !"

मैंने अपने छोले - कुल्चे ख़त्म किए ।

उसने भी आधा खाना खत्म किया। फिर उसने उस छोले कुल्चे वाले से एक झिल्ली मांगी और आधा खाना उसमें रख लिया।

मैं समझ गया कि ये खाना उसने किसके लिए रखा था। वो उस स्टूल से उठी और मेरे नज़दीक आ कर बोली,

'थंकु साहेब थंकु। "

मैंने उसका ‘थंकु' स्वीकार किए बिना उससे पूछा,

"तुमने थंकु कहना कहाँ से सीखा ?”

उसने शर्माते हुए कहा,

"ये मत पूछो साहेब । बस कहीं से सीख लिया । "

फिर मैंने मुस्कुराकर उसका 'थंकु' स्वीकार किया।

समय देखा, घड़ी 9:30 बता रही थी और 10 बजे मुझे दफ्तर पहुँचना था। छोले कुल्चे वाले को पैसे दिये। फिर उस छोटी बच्ची ने मेरी तरफ मुस्कुरा कर देखा और चल पड़ी अपने घर की ओर पर मुझे अपनी मंज़िल की ओर जाना था।

सो, मैं चल पड़ा मेट्रो गेट की तरफ, मैं आज गौरवान्वित था। फिर मुझे लगा मैं कुछ भूल रहा हूँ। अरे ! मैंने उस बच्ची का नाम तक नहीं पूछा। मैं पीछे पलटा, देखा कि वो छोटी बच्ची उछलते कूदते हुए दौड़ी जा रही थी। मैं चिल्लाया,

"सुनो छोटकी ! तुम्हारा नाम क्या है ?"

उसने मुझसे भी तेज़ चिल्लाकर कहा, "लक्ष्मी !"

मैंने सोचा,

"नाम लक्ष्मी ! और लक्ष्मी जी कभी इसके दरवाज़े नहीं आई। अगर आ पाती तो शायद...।

जैसे ही मैं अपनी सोच से बाहर निकला तो देखा कि वो छोटी बच्ची कहीं गायब हो गयी थी इस शहर की भीड़ में।

समय देखा, घड़ी अब 9:30 बता रही थी। मैंने मेट्रो पकड़ी और मेरे पूरे सफर के दौरान वो बच्ची मेरे ज़हन में इधर से उधर खेलती रही।




By : Radhepriyesachin

Comments & Reviews

Chitranjan kumar
Chitranjan kumar Nice story ☺️🥰

11 months ago

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