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ब्रह्मगढ़ के किले का रहस्य

Mohan pathak 30 Mar 2023 कहानियाँ अन्य रहस्य रोमांच 34170 0 Hindi :: हिंदी

   ब्रह्मगढ़ के किले का रहस्य  
चंद्रगढ़ के महाराज वीर चंद्र प्रताप सिंह बड़े धर्मात्मा,प्रजावत्सल और न्यायप्रिय थे। वे अपनी प्रजा का पूरा ख्याल रखते। अपनी प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते थे। महाराज अपने नाम के अनुरूप धर्मात्मा के साथ साथ बड़े वीर, साहसी, प्रतापी और कुशल कूटनीतिज्ञ थे। अपनी कूटनीति से उन्होंने पड़ोसी राज्यों से प्रगाढ़ सम्बन्ध बना लिए थे। चारों ओर महाराज की ख्याति फैल गई। सभी राजा महाराजा उनका सम्मान करते थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे युद्ध बिना लड़े ही जीत लेते थे।असल में उनका मृदु व्यवहार सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। महाराज के विश्वासपात्रों में उनके राजदरबार के प्रमुख मंत्री बुद्धदेव का भी महाराज की तरह ही प्रजा सम्मान करती थी। बुद्धदेव एक कुशल रणनीतिकार, नीतिज्ञ और विद्वान थे । राजकाज की समस्त नीतियों के ज्ञाता थे। महाराज को जब भी किसी मसले पर विचार करना होता तो बुद्धदेव अपनी सूझ बुझ से उनकी समस्या का समाधान निकाल ही लेते थे।                
महाराज की दो रानियां थी विनीता और सुनीता। दोनों रानियों में विनीता बड़ी थी। दोनों रानियां सुशील, विनम्र तथा रण कौशल में निपुण थी। विनीता और सुनीता ने एक एक पुत्र को जन्म दिया। दोनों का लालन पालन एक साथ हुआ।  बड़े पुत्र का नाम वीर बहादुर प्रताप सिंह था। वीर बहादुर बचपन से ही एय्याश प्रवृति का था। राजकाज में उसका मन नहीं लगता था।जिस कारण राजकाज चलाने की विद्या नहीं सीख पाया। गलत संगति में पड़ने के कारण हमेशा प्रजा का अहित  करता था।प्रजा उसके अत्याचारों से तंग आ गई थी। महाराज भी उसकी इस हरकत से चिंतित रहने लगे थे। उसके इस कार्य में  महाराज का एक अत्यंत महत्वाकांक्षी मंत्री धनदेव साथ देता था। वह पूरा राज हथियाने का षडयंत्र रचने की तैयारी में था। अपने पुत्र वीर बहादुर के गलत आचरण से महाराज चिंतित रहने लगे थे। महारानी विनीता शिकार खेलने की शौकीन थी।वह प्रायः दरबारियों के साथ शिकार पर जाती रहती थी।  एक दिन वह शिकार खेलने जंगल गई किन्तु वापस लौट कर नहीं आयी।राजा के मंत्रियों और दरबारियों ने उन्हें बहुत खोजा परन्तु उनका कोई सुराग नहीं मिला। बहुत साल बीत जाने पर महाराज ने उन्हें मृत समझ लिया। इस घटना से महाराज पूरी तरह टूट चुके थे।     
अब उनमें शासन प्रशासन की जिम्मेदारी संभालने की शक्ति नहीं रही थी। वे इस सांसारिक मोह माया से मुक्त हो जाना चाहते थे।किन्तु उन्हें अपने पिता को दिया वचन याद आता। अपने पिताजी को अंत समय उन्होंने वचन दिया था कि वे इस राज्य की यश और कीर्ति को नष्ट नहीं होने देंगे। इसे सुरक्षित हाथों में सौंपेंगे।                              महाराज के दूसरे बेटे का नाम वीर कुंवर प्रताप सिंह था। वह महाराज की तरह ही न्याय प्रिय था। अत्यंत कुशाग्र बुद्धि का था। उसने थोड़े ही समय में राज काज की समस्त विद्या प्राप्त कर ली थी। इसमें कोई संदेह नहीं था कि वह महाराज की तरह ही प्रतापी राजा साबित होगा। इसीलिए महाराज ने एक दिन अपने छोटे पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाने की  घोषणा कर दी। महाराज के इस निर्णय से उनके बड़े बेटे के ह्रदय में सांप लोटने लगे थे। सबसे अधिक चिंता धनदेव को होने लगी। उसे संदेह था महाराज और वीर कुंवर  के रहते वह कभी भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता है। 
 जानकार कहते हैं कि महाराज के महल के बीचों बीच एक सुरंग थी। वह सुरंग लगभग दो मील दूर एक जंगल में पहुंचती थी।उस जंगल में घने पेड़ों के नीचे एक तहखाना था। तहखाने के पूर्वी छोर में एक बहुत बड़ा किला था। उस किले को देखकर लगता था कभी यह किला राजकाज का मुख्य केन्द्र रहा होगा। किन्तु आज वीरान पड़ा था।वह जगह कुछ रहस्यमय प्रतीत होती थी। उस किले तक राजमहल के सुरंग से होकर ही पहुंचा जा सकता था। जंगल में किला दिखाई तो देता था। किन्तु उस मार्ग में चलने पर वह कहीं दूर जंगल में निकाल जाता था। देखने में पास ही प्रतीत होता था।किन्तु वहां तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं था। किले की भव्यता को देखकर वहां पहुंचने की कोशिश बहुतों ने की परन्तु सफलता किसी को भी नहीं मिलती थी। उस किले और तहखाने का रहस्य केवल उस राज्य के महाराज को ही पता था। किला काफी बड़ा और बहुमंजिला था। उस किले की एक मंजिल जमीन के अन्दर थी उस तहखाने से एक सुरंग के रास्ते जंगल के उस तहखाने तक पहुंचा जा सकता था।उस तहखाने और किले का महाराज के महल से क्या सम्बन्ध था यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित ही रहा है।राजमहल से निकलने वाली सुरंग का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि उसमे उतरते ही आगे चलकर बहुत से रास्ते चारों ओर को खुलते हैं। किन्तु वे सभी अन्दर अन्दर ही भटका देते हैं। महाराज के सिवाय  कोई भी उस सुरंग में निकला वह कभी वापस नहीं आया महाराज के विश्वासघाती मंत्रियों में से बहुतों ने उसमें निकलने की कोशिश की मगर उनका कभी कोई पता नहीं चल पाया था। सुरंग के रास्ते से जंगल में स्थित तहखाने और किले तक पहुंचने का मार्ग केवल महाराज को ही पता था। राजमहल का कोई भी व्यक्ति उस मार्ग के बारे में नहीं जानता था। महाराज के विश्वासपात्र मंत्री बुद्धदेव भी इस मार्ग के बारे में नहीं जानते थे। महाराज जब भी जाते वहां अकेले ही जाते थे। उन दिनों महाराज प्रत्येक रात्रि को जब सब सो जाते थे एक बार अवश्य ही जाते थे। उनका रोज रात्रि में वहां तक जाना यह भी एक रहस्य ही था। यह बात स्वयं महारानी के लिए भी एक रहस्य थी। ।                               
धनदेव को भी राजमहल के सुरंग के बारे में उतनी ही जानकारी थी जितनी कि अन्य मंत्रियों और प्रजा को।उसने सुरंग में जाने का मार्ग खोजने की कोशिश भी की। सुरंग में निकलते ही उसने देखा आगे से रास्ते बहुमंजली होकर खुले हैं कौन सा मार्ग सही होगा यह ज्ञात कर पाना बहुत मुश्किल था। यही पता करने के लिए कई बार उसने महाराज का पीछा भी किया।किन्तु थोड़ा आगे निकलते ही महाराज ओझल हो जाते और धनदेव को मायूस हो वापस आना पड़ता था। महाराज को भी यह बात पता चल चुकी थी कि धनदेव सुरंग का रहस्य जानने के लिए बेताब है। उन्होंने आगे से सावधानी बरतनी शुरू कर दी। उधर धनदेव किसी भी कीमत पर यह जानना चाहता था। इसके लिए उसने महाराज के बड़े बेटे को महाराज के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया। एक दिन राज दरबार में वीर बहादुर ने सभी दरबारियों के सम्युख अपने पिताजी से कहा, महाराज आपने मुझे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त न कर बहुत बड़ी गलती की है।  राज परम्परानुसार यह पद पाना मेरा अधिकार है। किन्तु आप अपने छोटे पुत्र से अधिक प्रेम करते हैं या मेरी सौतेली मां के कारण आपने  यह निर्णय लिया है। मैं यहां उपस्थित सभी विद्वान जनों से पूछना चाहता हूं कि क्या महाराज का निर्णय न्यायसंगत है। यह सुनकर सभी अगल बगल झांकने लगे। महाराज के प्रताप के सामने किसी की भी कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। इसी बीच धनदेव की आवाज गूंजी, राजकुमार वीर बहादुर ठीक कहते हैं। महाराज ने अपनी छोटी रानी के कहने पर ही ऐसा निर्णय लिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है। महाराज की बड़ी रानी दिवंगत हो चुकी हैं। इस बात का फायदा उठा कर छोटी रानी ने ही अपने पुत्र वीर कुंवर के लिए राजगद्दी सुनिश्चित करवा ली है। यह सुनकर महाराज ने कहा, यह सरासर झूठ है। हम अपने बड़े पुत्र को सबसे अधिक चाहते हैं। किन्तु बड़े पुत्र के गैर राजनीतिक कार्यों में संलग्न रहने के कारण ही हमने यह निर्णय लिया है। ताकि राज्य किसी भी प्रकार से कमजोर न पड़े। हम अपने राज्य की यश और कीर्ति को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं।हमारी भी इच्छा है कि हमारा उत्तराधिकारी हमारा बड़ा बेटा ही हो किन्तु राज्य की चिन्ता के कारण ही हमें बहुत सोच विचार कर यह निर्णय लिया। हम यह भी जानते हैं कि ऐसा निर्णय हमारी आत्मा को भी स्वीकार नहीं है। यह हमारी भावनाओं के विपरीत है। और यह हमारी बड़ी महारानी के प्रति सच्चा न्याय नहीं है। परन्तु राज्य और अपनी प्रजा के खातिर ही हमने यह निर्णय लिया है। यदि इसमें आप लोगों को कुछ बुराई नजर आती है तो हम अपने निर्णय पर एक बार फिर से विचार करेंगे।                   
 महाराज को जब भी किसी मसले पर विचार करना होता तो बुधदेव उनकी समस्या का समाधान निकाल लेते। एक प्रकार से बुधदेव चंद्रगढ के सवालों के समाधान थे । हर बार की तरह इस बार भी महाराज ने बुधदेव से सलाह करना उचित समझा। तो रात्रि में महाराज ने महामंत्री के कक्ष में जाकर उनसे विचार विमर्श करना चाहा। कक्ष में पहुंचते ही महामंत्री ने उन्हें प्रणाम किया। और विनम्रता से कहा, महाराज आपने क्यों कष्ट उठाया। सेवक को बुला लिया होता । महाराज ने कहा, हम अभी किसी राजनीति पर विचार करने नहीं बल्कि अपनी निजी समस्या लेकर आए हैं।इस समय एक राजा अपने महामंत्री के पास नहीं, बल्कि एक मित्र दूसरे मित्र के पास आया है। प्यासे को ही कुंवे के पास जाना होता है।कुंवे को अपने पास नहीं बुलाया जा सकता है।आगे उन्होंने कहा, महामंत्री जी हम दोराहे पर खड़े हैं।समझ नहीं आता है किस राह चला जाय।एक मार्ग इस राज्य के पतन की ओर जाता है और दूसरा मार्ग इसकी रक्षा तो कर सकता है किन्तु इस मार्ग में अपयश है।समझ नहीं आता किस मार्ग का अनुसरण किया जाय।  महामंत्री ने कहा, आज दरबार में उत्पन्न स्थिति से मैं भी हतप्रभ हूं महाराज। यह समय भाली भांति सोच विचार कर आगे बढ़ना होगा।धनदेवी ने इस बार जो जाल रचा है उसे काटना इतना आसान नहीं है। धनदेवी की बढ़ती शक्ति और वीर बहादुर का विरोध ने उसे ताकतवर बना दिया है। इसमें संदेह नहीं कि उसके साथ राज दरबारी भी शामिल हों। आज दरबार में धनदेवी की बातों का विरोध किसी के भी द्वारा न करना किसी बड़ी साजिश को अंजाम दिए जाने की तैयारी है। परिस्थितियों के अनुसार इस समय राज्य का उत्तराधिकारी के निर्णय पर  एक बार फिर से सोच विचार करने की आवश्यकता है। महाराज आप चिंतित न हों काल तक कोई न कोई समाधान निकल आएगा। अपने महामंत्री के आश्वासन पर महाराज अपने महल में वापस आ गए थे।  महाराज के चले जाने के बाद महामंत्री को आज महाराज का चेहरा  कुछ विचित्र सा लगा। असल में महाराज उस रात जल्द बजी में या भूलवश अपना मुकुट पहने बिना ही महामंत्री के पास चले गये थे। महामंत्री ने महाराज के चेहरे पर एक विशेष निशान देखा था। ऐसा निशान महाराज के चेहरे पर था ही नहीं।महामंत्री महाराज को बचपन से ही जानते थे। उन्हें कुछ अनहोनी की आशंका हो चुकी थी  किन्तु अपने शक को महाराज पर जाहिर नहीं होने दिया था। अब महाराज की असलियत जानना ही महामंत्री का उद्देश्य था। उसी रात्रि को महामंत्री महाराज के कक्ष के आस पास ही छिपे रहे। रात्रि में जब महाराज सुरंग के रास्ते निकले तो महामंत्री उनके पीछे छुपते छुपते आगे बढ़ते रहे। थोड़ी देर में महाराज जंगल में तहखाने के पास थे। तहखाने में उतरते ही महाराज ने वहां जो डेखा वह आश्चर्य प्रकट करने वाला था।तहखाने में असली  महाराज को बन्दी बना कर रखा गया था। महाराज को देख महामंत्री के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।परन्तु महामंत्री यह नहीं समझ पा रहे थे कि यह नकली महाराज शक्ल, स्वभाव, कद काठी से महाराज की तरह ही लगने वाला आखिर कौन हो सकता है। बहुत जोर देने पर भी वे नहीं समझ पा रहे थे। उन्हें लगा इस रहस्य का पता केवल महाराज ही दे सकते हैं।यही सोचकर महामंत्री उस समय वापस आ गए।                                   दूसरे दिन महामंत्री दरबार में उपस्थित नहीं हुए। महाराज ने सैनिकों से पूछा तो पता लगा कि वे आज प्रातः ही कुलदेवी की पूजा के लिए गए हैं। महाराज को लगा कि कल की समस्या से महामंत्री व्यथित  होंगे।शायद इसीलिए शांति के लिए कुलदेवी की शरण में गए होंगे। उधर महामंत्री उस दिन सुरंग के रास्ते तहखाने का रहस्य जानने पहुंचे। वहां नकली महाराज के दो सैनिक पहरे में थे। महामंत्री पूरी तैयारी से गए थे। उन्होंने जाते ही दोनों सैनिकों को बेहोश कर दिया। सैनिकों के बेहोश होते ही महामंत्री महाराज के पास पहुंचे। उन्हें मुक्त कर वे दोनों बाहर निकाल आए। महामंत्री ने पूछा महाराज यह सब क्या है। ये नकली महाराज कौन हैं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। कृपा करके इस पहेली का रहस्य बताए।   महाराज ने को कहानी बताई वह इस प्रकार है। यह नकली महाराज मेरा हमशक्ल है। यह हमारे पड़ोसी राज्य का गुप्तचर है। इसका नाम विक्रम देव सिंह है। इसने कूटनीति से मुझे बन्दी बना लिया है। महारानी विनीता इससे प्रेम करती हैं।जिन्हें हम मृत समझ रहे थे वह आज भी विक्रम देव के साथ रहती हैं। उसने  महारानी को कहीं और रखा है। वह किला ओर यह तहखाना रहस्यमय है। इस तहखाने और किले के तहखाने में अकूत धन होना बताया गया है। यह बात विक्रम देव भी जानता है। उसे लगता है हम इस किले का कुछ रहस्य जानते हैं।इसीलिए उसने हमें आजतक जीवित रखा है। हमने भी किले का रहस्य न बताकर  अपनी जान बचाई है । हमें पता है जब तक किले का रहस्य नहीं बता दें तब तक हमें नहीं मार सकता है। प्रत्येक रात्रि विक्रम देव हमें भोजन देने और हमसे रहस्य जानने यहां आता है। हमें लगता है हमें बन्दी बना लेने में महारानी विनीता  भी इस साजिश में शामिल है।  अभी भी हम सुरक्षित नहीं हैं। यह जंगल बहुत घना है। यहां पल पल जंगली जानवरों का भय बना रहता है। यह जंगल भूलभुलैया है।इससे बाहर निकालने का कोई मार्ग नहीं है। सभी मार्ग अंत में इसी जगह आकर मिलते हैं। ऐसा हमने अपने पिताजी से सुना था। उनके साथ एक दो बार हम यहां आए थे। उन्होंने ही हमें  इस किले का रहस्य बताया था।  इस किले में यहां अकूत धन गड़ा हो सकता है। प्राचीन काल में यह किसी चक्रवर्ती सम्राट का किला रहा होगा। अब हम विक्रमदेव के चंगुल से निकल तो गए हैं मगर राजमहल तक कैसे जाए। रात होने वाली है। विक्रम देव आता ही होगा। हमें वहां न पाकर बौखला जाएगा।                    
 महाराज की बात सुनकर महामंत्री ने कहा, महाराज आप चिन्ता नहीं करें। कुछ न कुछ उपाय जरूर निकाल आएगा। महामंत्री अपने पास एक विशेष प्रकार का यंत्र लेकर आए थे। यह यंत्र आगे निकलने वाले मार्ग की जानकारी दे देता था। उस रात वे दोनों जंगल के बीच बैठे रहे। दूसरे दिन उन्होंने आगे की यात्रा शुरू की। यंत्र के सहारे वे दूर निकल आए।                   
  उसी रात्रि में विक्रम देव जब तहखाने में पहुंचा तो वहां महाराज को न पाकर बेचैन हो गया। उसने अपने सैनिकों से पूछा तो उन्हें भी कुछ ज्ञात नहीं था। असल में महामंत्री ने एक विशेष प्रकार की जड़ी से उन्हें बेहोश कर दिया था। उन्हें I इतना ही याद था कि आज दिन में जब आप आए थे उस समय हम बेहोश हो गए थे। महाराज ने कहा, क्या कहते हो। हम रात के सिवाय कभी भी यहां नहीं आते हैं। यदि आप नहीं आए तो फिर कौन आया था। विक्रम देव पूरी पहेली समझ गए। जरूर महामंत्री आज दिन में यहां आए होंगे।फिर सोच में पड़ गए कि महामंत्री ने तो यह मार्ग कभी देखा ही नहीं वह कैसे आ सकते हैं। विक्रमदेव की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था।  वह कैसे कहे कि महामंत्री और महाराज को खोजने में मदद करें।ऐसा करने पर सारा रहस्य प्रकट हो जाएगा। पूरी प्रजा विक्रम देव को ही असली महाराज समझती थी।प्रजा ही नहीं बल्कि उनके दोनों पुत्र भी उसे नहीं पहचान  पाए। महारानी सुनीता के कक्ष में वह जाता ही नहीं था। महारानी सुनीता को लगता कि शायद विनीता की मृत्यु से महाराज वैरागी हो गए हैं। उसने भी कभी जानने की इच्छा प्रकट नहीं की। पिछले पंद्रह दिनों से विक्रम देव राज महल में रहकर सारी गतिविधियों पर नजर रख रहा था। उसने सोचा था किले का रहस्य मिलते ही महाराज की हत्या कर स्वयं चंद्र्गढ़ का राजा बन जाएगा। इस प्रकार उसे राज्य और धन दोनों की प्राप्ति हो जाएगी।                                  उसे विश्वास था कि वे इस जंगल से बाहर तो निकल सकते नहीं। अतः उसने किले और तहखाने के चारो ओर सैनिकों का पहरा लगा दिया कि गुप्तचरों से सूचना मिली है कि कुछ अराजक लोग किले का रहस्य जानने के लिए इस जंगल में आए हैं। उसने सैनिकों को आदेश दिया कि जो भी दिखाई दे उसे मार दिया जाय। इसी बहाने से उसने पूरे जंगल में सैनिकों से खोज बीन भी करवाई किन्तु कहीं कोई नहीं मिला। बहुत दिन बीतने पर भी उसे न तो महाराज दिखाई दिए और न महामंत्री। अब उसे विश्वास हो गया कि महाराज और महामंत्री दोनों जंगली जानवरों का शिकार हो गए हैं। इस प्रकार अब वह निश्चिंत हो गया।  अगले दिन धन देव ने महाराज से अपने उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की तो विक्रम देव ने महामंत्री के न होने की बात कहकर यह बात टाल दी थी। उत्तराधिकार को लेकर धन देव और वीर बहादुर का विरोध दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था। उधर बहुत दिनों से महामंत्री के न आने से प्रजा उनके सम्बन्ध में पूछताछ करने लगी थी। महाराज से कहने की हिम्मत तो किसी की नहीं हुई। परन्तु आपस में कानाफूसी हो रही थी। विक्रम देव बड़ी मुसीबत में फस गए थे। क्या करें।कैसे प्रजा और वीर बहादुर को शांत करने का हल खोजें। एक तो उन्हें किले का रहस्य नहीं मिला था दूसरा राज्य के महामंत्री बहुत दिनों से नहीं लौटे थे।                        
  महाराज वीर चंद्र प्रताप सिंह और महामंत्री चलते चलते एक ऐसे राज्य में पहुंचे जहां के राजा  महाराज प्रताप सिंह के मित्र थे। कुछ दिन बाद महामंत्री अपने राज्य वापस लौट आए। उन्हें वापस आया देखकर प्रजा में खुशी की लहर दौड़ गई। महामंत्री ने यह आभास नहीं होने दिया कि वे विक्रम देव की वास्तविकता को हैं गए हैं वे अपने साथ अपनी कुलदेवी का पूजन करने वाले पुरोहित को लेकर गए थे ताकि विक्रम देव को विश्वास हो जाए कि महामंत्री कुलदेवी की पूजा में उनके साथ शामिल थे पुरोहित की बातो स विक्रम को विश्वास हो गया कि महामंत्री उनके साथ ही थे। परन्तु अब महाराज वीर चंद्र प्रताप को किसने छुड़ाया था। यह अनबूझ पहेली बन गई थी खैर विक्र देव इस बात से निश्चिंत हो गया था कि महाराज अब जीवित नहीं रहे। उधर महाराज ने अपने मित्र की  मदद से   अपने ही राज्य पर  राज्य पर चढ़ाई कर दी। मौका देख कर महामंत्री ने विक्रम देव की असलियत सबके सामने प्रकट कर दी।अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों की मदद से विक्रम देव को बन्दी बना लिया गया। विक्रम देव ने है महारानी विनीता को भी पकड़वा दिया।उसे भी महाराज ने बन्दी बना लिया था। धनदेवी और वीर बहादुर इस लड़ाई में मारे गए। एक बार फिर से चंडीगढ़ सुरक्षित हाथों में आ गया। यह सब बुद्ध देव जैसे सूझबूझ के पारखी महामंत्री की बदौलत हुआ था। महाराज ने महामंत्री को खूब सम्मान और इनाम दिया।                                                                                    

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