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हे भारत के वीर जगो

Amit Kumar prasad 30 Mar 2023 कविताएँ देश-प्रेम This poem is base on aware the India's all warior Son and most of try has been done for came of India's glorious feature. Jai Hind. 16088 0 Hindi :: हिंदी

जगा रहें हम जाग - जाग, 
भारत के उज्जवल नयनों को! 
जो दिखा सके भारत का भविष्य, 
इस महा योग सु: ख: चयनों को!! 
                         कर्मों से अडीग आराम मिले, 
                         मिलती हैं अमन सर्मप्ण से! 
                         दिखता है भविष्य आज से ही, 
                         अचल कर्म के र्दपण से!! 
है अमर धरा का भार यही, 
जो बार - बार ये पुकार धरें! 
न सहे ये अत्याचार कभी, 
न किसी पे अत्याचार करें!! 
                          हमने दिपक को वार दिया, 
                          साहित्य कि ज्योत जलाई हैं! 
                          बना वाण शब्दों का संजीवन, 
                          धरती को शुधा पिलाई है!! 
फिर से कर रहा सृजन नुतन, 
अधुनातन प्रम उत्कंठा से! 
कर्मों को दे रहा शब्द नमन, 
भारत के प्रेम कि निष्ठा से!! 
                          कि हे भारत के वीर जगों , 
                          मै तुम्हें जगाने आया हुं! 
                          सौ कर्मों का कर्म प्रबल, 
                          मै कर्म शीखाने आया हुं!! 
विचलित ये धरा पर कर्म चंचल, 
पर सत्य ना अल्प विश्राम किया! 
ये अचल रही अपने पथ पर, 
और धर्म का ऊंचा नाम किया!! 
                          हे भारत के कर्म जगो, 
                          हम तुम्हें जगाने आऐं  है! 
                         ले उज्जवलता शब्दों का, 
                         अंधकार मीटाने आऐं हैं!! 
कर्म वही जो बाहूबल मे, 
अचल धरा का भार रखे! 
है ज्ञान वही जो इस वशुधा कि, 
बड़ - बड़ विपद हजार सहे!! 
                    ज़हनों मे सहन कि क्षमता लेकर, 
                    राम भये, घन श्याम भये! 
                    कभी महा देव ने विष पी डाला, 
                    श्रतीज़ श्तब्ध जयकार करें!! 
धरती के पुत्र बन भावों मे बंधकर, 
काल पुरूष अवतार धरें! 
सहा र्दद वशुधा मे मनुज बन, 
वशुधा अब तक जयकार रहे!! 
                     जगो - जगो हे रघुनंदन, 
                     मै तुम्हे जगाने आया हूं! 
                     वशुधा के लेख के प्रेम, 
                     अमर रस पान कराने आया हुं!! 
गर आप जी ऊठ्ठे जगती को जिलाने, 
साहित्यकार कलम आराम करें, 
जगा - जगा भारत कि धरा को, 
कलम भी जय - जयकार करें!! 
                           कर रही अमर रस कि गाथा, 
                           मै जगा रहा भारत का अमन, 
                           काल जयी इक शब्द अचल, 
                           जय भारत जय - जय भारत!! 
हे आर्यावर्त के लाल जगो, 
हम तुम्हे जगाने आऐं हैं! 
सौ चंचलता का दृढ़ संकल्प, 
का प्रकल्प सुनाने आऐं हैं!! 
                          जाग रही सतीयों कि खातीर, 
                          कही भारती दुर्गा बन कर! 
                          कहीं धरे गौरी का रूप, 
                          करूणा देने भारत मा बनकर!! 
इस धरा के शीव न डरें कभी, 
जगती का विष पी जाने से! 
राम डरा न कभी काल से, 
भारत को अजयी बनाने से!! 
                       कि जागो - जागो महाकाल मै , 
                       मै काल मिटाने आया हुं! 
                       इस वशुधा के अनहित कारों को, 
                       दिशा दिखाने आया हुं!! 
गांधी, शुभाश और भगत कि बोली, 
वशुधा का अमर विकाश धरे! 
हर वो जन्नी है भारत माता, 
जो वशुधा का नुतन विकाश करे!! 
                   हे भारत के श्याम जगो , 
                   मै बजा रहा शब्दों से सूर! 
                   साहित्य धरा बन करती अभीनंदन, 
                   लता - झटा सूर मधूर - मधूर!! 
कर रहा नमन नीज शब्दों को मै, 
पाठक मन को ये मधूर करें! 
हृदय को छू डाले शब्द मेरे, 
मानवता का नुतन विकाश करें!!
                         जागे महा वीर राणा जी जिसने, 
                          न कभी शमशीर धरी! 
                         वीर शीवाजी और तानाजी, 
                         जो बारूदों पर ईतीहास रची!! 
रच गई बन मर्दिनी लक्ष्मी बाई, 
वो उनका ईतीहास जगे! 
सौ के झूण्ड मे भारत एक अकेला, 
अचल धरा का विकाश जगे!! 
                  हर रंग है फिका तिरंगे के समुख,
                  भगवा ईक रंग केशरिया का! 
                   जो तेज, उत्साह का अमर चीन्ह, 
                   सत्य, हरियाली धरने का!! 
जगा रहें हैं हम कलमों से, 
जाग - जाग तम घोर समर! 
है दृश्य अचल कुछ करने का, 
बन सकते धरा पर आप अमर!! 
                          अमरत्व धार कि ले निष्ठा, 
                          धर्म ने है प्रस्थान किया! 
                          फिर आज धरा पर औंजों से, 
                          कर्म ने है उत्थान किया!! 
कि हे भारत के धरा पुत्र, 
जगती को करलों और अज़र! 
गुंजें आज़ादी धर्म विभूर, 
और अमन - चैन हो नगर - नगर!! 
                          हे भारत के वीर जगो , 
                          हम तुम्हें जगाने आऐं हैं! 
                         सौ धर्मों का ईक धर्म अमर, 
                         हम धर्म शीखाने आऐं हैं!! 
है साहित्य जाग कर जगा रहा, 
भारत के पिछड़े उन रैनो को! 
जो दिखा सके भारत का भविष्य, 
इस महा योग सू: ख: चयनों को!! 

साहित्यकार    :-  अमित कुमार प्रशाद
Littereur    :-   Amit Kumar Prasad

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