दीवार पर चिपकी हुई धुंध
नये युग की
नयी तालीम के साथ
ना उसमें ओस के लक्षण
ना ठंड़ापन
ना मधुरता
ना स्नेह की कोई कीमत
बस पागलपन
कूट कूट भरा है
जो चुभता है आँखों में
हर रोज
सुबह शाम,
जिसे लोग कहते हैं
धुआँ पराली का
और कुछ करते हैं
नेतागिरी बेबुनियाद यूँहीं |
अशोक बाबू माहौर
Bahut khoob