Suraj pandit 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक एक धर्म 23257 0 Hindi :: हिंदी
कभी सोचा है तुमने, उन जीवो के बारे में। कभी सुना है उसकी चित्कार क्यों कर रहे दानव आचरण, जिसका कभी ना था ऐसा व्यवहार। न लिखी है ग्रंथों में, न है गीत पुराण में, बली तो एक परंपरा थी, क्यों ला रहे इसे धर्म की आड़ में। हजारों वर्षों से जो चली आ रही, आज क्या बदलाव आया है। यह त्योहार खुशियों का, तुमने भगवान को भी नाराज करवाया है। वह जीव उस मां की, जिसने तुम्हें संभाला है। बलि देकर उस जीव का, क्या तुमने पाया है। यह स्थानीय संस्कृति, परंपराओं का देन है, न गीत पुराण की। यह बलि प्रथा लोगों की सोच है, न ईश्वर की। बहुत हुआ अत्याचार धर्म की आड़ में, अब बदलाव आएगा। मेरी यह कविता रोशनी बनकर, हर जगह प्रकाश फैलाएगा। मैं बालक हूं अज्ञात सही, समाज में रोशनी फैलाऊंगा । सूरज की भांति चमक कर, एक नई राह दिखाऊंगा। कवि--- सूरज पंडित