Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक चक्कर 123648 0 Hindi :: हिंदी
चक्कर है साहब, पड़ ही जाता है। राई का बन जाता पहाड़, गढ़ी बन जाता है गढ़। पाठा का नाटा बन जाता, पहाड़ का बने कंकड़। मकड़ी फंसती मकड़ -जाल, सभा में मचे भगदड़। शेर के मुंह से बच जाता, घर में ले मौत पकड़। कांटे में भैरो, अड़ ही जाता है। चक्कर है साहब, पड़ ही जाता है। दो और तीन, हो जाते हैं चार। कुटका भी, मार देता लाठी की धार। डॉक्टर की पत्नी का भी, उतर जाता चूड़ी का भार। अर्जुन जैसे महारथी का, चूक जाता है वार। बनता काम, बिगड़ ही जाता है। चक्कर है साहब, पड़ ही जाता है। समर सूरमा, मर जाता गली। ज़हर खुराकी मर जाता, खा मिश्री की डली। पत्थर नीचे दब जाता, पहाड़ उठाने वाला बली। आंट आया बादशाह, भागता पतली गली। अपना भी, अकड़ ही जाता है। चक्कर है साहब, पड़ ही जाता है। पड़ ही जाता है।