जीतपाल सिंह आर्यावर्त 30 Mar 2023 कविताएँ धार्मिक चंद्रमणि माधव जीतपाल सिंह आर्यावर्त 78236 0 Hindi :: हिंदी
● चन्द्रमणि माधव ● खण्ड प्रारम्भ हिम खण्डों में ज्यों श्वेत जमे, त्यों जमा समर में रणधारी। व्याकुल तुरीण में तीर हुए, फुसकार उठा ज्यों मणिधारी। हे पार्थ! शब्द सा गूंज गया, माधव ने वचन उचार कहा। अब मान परीक्षा साहस की, राधैय विकल है आन सहा। लाखों जीवों के सहचर सा, अब मेला लगता जाता था। मानव मुण्डों के ढेर लगे, रूंडों को गिद्ध न खाता था। सत्रह दिवसों से कुरुक्षेत्र, नित रक्त स्नान कर रहा था। सैना की गणना क्या होती, पग पग पर वीर मर रहा था। राधेय धर्म की परिधि पर, न सेशव कौतुक करता है। सहदेव, नकुल और भीम सहित, कुन्तेय दयामृदु हंसता है। रणभेरी की छवि निखरि गयी, सापेक्ष गूंजता नादभृंगु। वीरों के सम्मुख जब आता, राधेय देख होते अपंगु। अर्जुन का रथ नहीं स्थिर था, माधव मन शंका तनिक न थी। केवल पर रण में कर्ण वली, अर्जुन की क्षति मति मन की थी। दुर्भाग्य पूर्ण तब धर्मराज, सापेक्ष समर में भेंट गये। पर बार एक तन पर कुलीन, राधेय पटल पर ऐंठ गये। युद्धिष्ठर कौमल मान पड़े, कहाँ कर्ण वली था रण बंका। कुन्तैय भाग कर निकल गया, कायर सी लिये छाप संका। यादव साकेत समागम सा, जिस तरह रात दिन मिलता है। उस संध्या का सूरज सदैव, शीतल समीर ले खिलता है। माधव सारथी बने तो थे, पर मार्ग प्रदर्शन भारी थे। उत लाखों वीर लडांके थे, इत केवल सत्य पुजारी थे। पर पृष्ठ भूमि रणनीति की, केवल जूझती रही बसुधा। केशव चिन्ता अति व्याप रही, धीरज अधीर थी हर सुबिधा। पहले कुन्ती को पास भेज, दे दिया कर्ण को ममता सुख। फिर कुरुक्षेत्र में घटोतच्छ, राधेय झेलता शासित दुःख। खो गयी मनुषता मानव की, हर और पृष्ठ पशुता का था। कुल की रीतियां विखण्डित थीं, रिश्तों में जहर कटुता का था। कुल की मर्यादा ऐसी थी, न भेद सुता माता का था। केवल नजरों की व्यंग्य दृष्टि, शोषित बदला सत्ता का था। आदर भावों को मानों तो, जैसे कुटिलों की जाति खड़ी। न भेद बड़े छोटे का था, चहुँ ओर शत्रुता दोड़ पड़ी। यद्यपि श्री माधव के विचार, कुछ शान्ति पक्ष धर तो होते। यद्यपि दुर्योधन के मतादि, कुछ पाण्डु दया धर तो होते। शायद वैभव की नींव अगर, धृतराष्ट्र सत्यता पर रखते। शायद कुछ पुत्र मोह न रख, कुल की मर्यादा पर मरते। सर सैय्या पर लेटा विधान, प्रायश्चित के सिवा बचा क्या था। शब्दों की पीड़ा इतनी थी, कुल के विनाश का दु:ख क्या था। वे भीष्म प्रतिज्ञा के अधीन, रह कर भी धर्म बचाते थे। जिस हस्तिनापुर के लिए जिये, उसकी दुर्दशा सुनाते थे। आसक्ति विदुर की नीति-शक्ति, अब भी पल पल चिल्लाती थी। धृतराष्ट्र मोह को त्यागो तो, कुल की मर्यादा जाती थी। हे केशव! कैसा युध्द किया, तुम तो लीला दिखला देते। दुर्योधन मन मति कुटिली था, तुम अर्जुन को समझा देते। एक बार युध्द को रोक जरा, रणभूमि शान्त करी होती। वे शक कुछ फल न मिल पाता, पर शान्ति बेल धारी होती। कारण केवल न कर्ण बना, न द्रौण गुरु से शावक थे। केवल बहुधा की नजर अभी तक, केशव ही प्रतिपालक थे। प्रण प्राण गये तो जाने दो, कवि की गरिमा भी खूब रही। पृथ्वी की धुरी नहीं घूमी, जब तक रणनीति नहीं कही। केशव ही कवि बने पहले, और राजनीति के नायक भी। दुनियां में विश्व विजेता भी, और शत्रु वंश विनाशक भी। अब आगे बढ़ती बसुधा का, जब समय और नजदीक हुआ। अर्जुन का रथ कौतूहल से, थोड़ा सा और समीप हुआ। तीरों की सर सर की अबाज, मानों अम्बर दहलाती थी। आंधी की भांति उड़ी धूमिल, मिल खून धरा नहलाती थी। अब काल चक्र का चक्र, और रूख मोड़ रहा कुछ खाने को। एक और वीर तैयार हुआ, अपना अस्तित्व मिटाने को। मुंह खोल खड़ा यम का स्वरूप, कुछ भार धरा से कम तो हो। स्वर्णिम सा रूप प्रकृति का, कुछ पीड़ा सह कर नम तो हो। अब रणभूमि की दशा देख, चहुँ ओर दिशा व्याकुल होती। न अर्जुन तीर रोकता था, न कर्ण शक्ति बेवश होती। सर छोड़ रहा वैभव पुनीत, राधेय महान धनुर्धर था। अर्जुन छोटा पड़ जाता था, जब राधेय तीर चलाता था। हर बार काट देता हंस कर, जो बार बार करता अर्जुन। पर कर्ण कला की क्या कहने, आचेत मान पड़ता अर्जुन। केशव की चिन्ता दूनी थी, राधेय और विकराल हुआ। सूरज भी लाल हो चला था, संध्या कदमों का काल हुआ। अर्जुन की दशा देख माधव ने, और दिशा निर्देश दिए। योद्धा कहलाने का मत है, दुश्मन पर बार प्रहार किये। अर्जुन मुझको यह लगता है, तुम केवल झूठी शान रही। वरना सिंहों के जातक ने, गीदड़ की नहीं दहाड़ सही। जितना करतब दिखलाना था, अर्जुन ने नहीं कमी छोड़ी। पर कर्ण आज पाहड़ समान, तीरों की मार सभी तोड़ी। था आज समय सब बदलों को, एक साथ जोड़ कर बदला लूं। द्रौपद द्वारे अपमान सहा, दीक्षांत सभा का बदला लूं। जिस कारण अपमानित होता, कह सूत पुत्र हंसते मुझ पर। वो सारी बातें याद रखूं, तब तीर शक्ति दागूं तुझ पर। इस बार युध्द का रूख बदला, हैरान रहा यदुकुल नन्दन। इतनी तेजी से तीर चले, कर रहा कर्ण सब अभिनन्दन। अर्जुन व्याकुल हो सिथिर हुआ, कुछ समझ न उसको आता था। राधेय चलाता अचुक वाण, केशव का दिल घबराता था। अश्वों को दे आदेश कृष्ण ने, रथ को दिशा विहीन किया। ले शल्य चले रथ को पीछे, पहिया ने लक्षित हीन किया। जब धरा धीर की कोख बनी, केशव मुस्कान बिलक्षणा था। एक दानवीर के प्राणों की, आहुति का यह लक्षण था। जब अश्व शक्ति को छोड़ गये, राधेय विकल हो कूद गये। तब केशव की नीति के मानक, अर्जुन पर यूँ फूट गये। हे पार्थ ! समय है साम दाम का, दण्ड भेद अपनाओ तो। दुश्मन का कद अब छोटा है, गण्डीव प्रतिन्छ चढ़ाओ तो। अर्जुन ने कुछ पल नियम को, अपनाने की कुछ बात कही। तब याद दिला दी अभिमन्यु की, चक्रव्यूह की बात कही। बस एक प्रतंच्छ चढ़ा सर पर, केवल अब के प्रहार हुआ। बस एक तीर से ही राधेय का, सिर गर्दन से दूर हुआ। पर रहा विकल परिसर दल का, केशव के नेत्र कुमुन्द हुये। आंसू बनकर निकली धारा, उस समय अधीर मुकुन्द हुये। बोले हे पार्थ! जरा देखो, वीरों की भांति लड़ा योद्धा। कुन्ती का लाल नहीं हारा, अब हार गया अर्जुन योद्धा । यह वचन पार्थ पर भारी थे, वोले हे केशव यह कैसे? यह सूत पुत्र कौरव दल का, कुन्ती जननी का हल कैसे? बस यहीं समर का अंत हुआ, दुंदभी बजी सह शंखनाद। कुन्ती का कर्ण मिला रण में, रह गया वीर का अंशमाद। *खण्ड विश्राम* कवि:- जीतपाल सिंह यादव आर्यावर्त (बंजरपुरी पांवासा सम्भल)