Kranti Raj 13 Oct 2023 कविताएँ राजनितिक 14569 0 Hindi :: हिंदी
बिक रहा कर्म यहाँ ,बिक रहा इंसान पैसों की बल पर बिक रह नियम और विधान चारो ओर बईमान का साया कब चेतेगा इंसान नारी का रूप कुरूप हुआ मर्द नारी रंग में ढल जाय किमत इंसान का ना यहाँ मुर्गा बाजार बिकाय रोज जगाने वालो को हँसी -खुशी सब खाय छप्पन भोग पत्थर को मिले खुखे आदमी मर जाय बृद्ध हुये माँ बाप को कोई न पकडे हाथ साथ चलना तो दुर हुआ रोज तीर्थ घुमने जाय पत्नि की दर्जा तो हमसफर हमराही माता पिता बृद्ध आश्रम पडे पलंग सोफा सोवे महरानी भुल गये हमसब साक्षात भगवान को जिनके तन से जन्मे हम सब भाई कुदरत का क्या खेल कहे कहीं बाढ ,आपदा विपती आई कम आयु रहा मानव को क्योकि कलयुग गठरी बांधी इंसान इंसान को कद्र नहीं करता झुठा जग पतियाई भाई-भाई बैर हुआ रिस्ता चिन्हें नही . जात -धर्म की खेल में उलझे हुए हम सब लोग पाखंड रूपी माया में जी रहे हम सब लोग जब प्राकृति कोई ना भेद भाव किया पाँच तत्व से तन बना भाई ना जात का नाम ,ना धर्म का नाम सिर्फ एक इंसान बना कब बना ,क्यो बना हमें दो बताय मानवता से बडा कोई धर्म नही क्योकिं कफन तक जल जाय कहे राजक्रान्ति पाखंड का मुखौटा क्यों पेहने भाई कवि-क्रान्तिराज दिनांक-13-10-23