Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक वक़्त -बंचन 35120 0 Hindi :: हिंदी
धरती होगी ऊसर, आहा, आह में बदल गया। लंबी दूरी नाप रहा, स्वार्थ- सीढ़ी से सफ़र। बढ़गी पैदावार होगी, गुण हेतु धरती बंजर। रिश्ते नातों की मर्यादा, सड़क पर रही बिखर। इंसान से इंसानियत, करने लगी, अगर - मगर। प्यार ,प्रेम का बंदनवार, कुछ टूटा, कुछ रज़ में रल गया। धरती होगी ऊसर, आहा, आह में बदल गया। खान संकर, पान संकर, संकर ही इंसान। सिल्वर फॉयल में लिपटा, रूप- रंग का मेहमान। सब्जी में स्वाद, इंसान में गुण नहीं, बची है झूठी शान। फल सब्जी पर प्लास्टिक पोलिश, अंदर कीड़ा बात हैरान। आदमी के अंदर का, आदमी निकल गया। धरती होगी ऊसर, आहा, आह में बदल गया। स्वार्थ नींव पर कपट भवन, संकर मेहराबी खोल। कपट कुंड में स्वार्थ आहुति, सर्व स्वाहा, स्वार्थपूर्णा बोल। बिना सींग, पूंछ पशु, अपना पहचान ले मोल। कितना ही दौड़ ले, यह दुनिया है गोल। दिखता है वह है नहीं, है, जो दिखता नहीं, कैसा चलन चल गया? धरती होगी ऊसर, आहा, आह में बदल गया। आह में बदल गया।