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आरक्षण एज समस्या या सामाजिक समानता

Mohan pathak 30 Mar 2023 आलेख राजनितिक समस्या समाधान 31590 0 Hindi :: हिंदी

 आरक्षण व्यवस्था का ऐतिहासिक, आर्थिक,  संवैधानिक  तथा सामाजिक पक्ष। 
वर्तमान भारत में आरक्षण व्यवस्था को ले कर आन्दोलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जिस कारण समाज में जातिभेद, वर्गभेद, व्यक्तिभेद, नस्लभेद और लिंगभेद बढ़ता जा रहा है।  पूरा भारत राष्ट्रीय मुद्दों को छोड़ इस एक मात्र मुद्दे को लेकर सड़क पर आन्दोलन रत दिखायी दे रहा है। कोई इस संवैधानिक व्यवस्था को समाप्त करने तो कोई स्वयं को इस सुविधा की धारा से जोड़ने के लिए। इस मुद्दे को लेकर सड़क से लेकर संसद तक रोज गरमा गरम बहस जारी है।                                       ऐतिहासिक पृष्ठभूमि---------4                       
 आरक्षण की इस व्यवस्था पर टीका टिप्पणी करने से पूर्व इसके इतिहास पर एक नजर डाल लेना उचित होगा।सर्वप्रथम आजादी से पहले महात्मा ज्योतिराव फुले ने सन 1882 में प्राथमिक शिक्षा के लिए गठित हंटर कमीशन के समक्ष वंचित तबके के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की वकालत करते हुए सरकारी नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग की। सन 1891 में त्रावणकोर में बाहरी लोगों के खिलाफ सिविल  नौकरी में देशी लोगों को आरक्षण देने की मांग उठी। सन 1901-02 में वर्गविहीन समाज की वकालत कोल्हापुर रियासत के छत्रपति शाहूजी महाराज ने  की।उन्होंने पहली बार वंचित तबके के लिए आरक्षण व्यवस्था शुरू की।  आरक्षण को लेकर यह देश का पहला राजकीय आदेश माना जाता है।           
आजादी के बाद संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को  सरकारी नौकरी में शुरुआत में 10 वर्षों के लिए आरक्षण दिए जाने का प्रावधान रखा गया था। यह दलील देते हुए कि इन 10 वर्षों में इन वंचित तबके का जीवन स्तर सामान्य हो जाएगा तो इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाएगा। किन्तु राजनीतिक लाभ के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के कारण उसके बाद से उसकी समय सीमा को लगातार बढ़ाया जाता रहा है।
सन 1979 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। उसके अध्यक्ष संसद सदस्य बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल थे। जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है। इस आयोग ने आरक्षण की सीमा को 27 प्रतिशत बढ़ाते हुए 49.5 प्रतिशत करने की सिफारिश की।  वी0 पी0 सिंह सरकार ने 1990 में इस आयोग की सिफारिसों को लागू कर दिया। इसके विरोध में देश भर में आन्दोलन किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने  इसे वैध ठहराते हुए सुझाव दिया कि आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक नहीं किया जा सकता है।        संवैधानिक प्रावधान:-
भारत के संविधान के भाग तीन में  भारतीय नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसके अनुसार  राज्य  सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े  या अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए  विशेष प्रावधान कर सकता है। अनुच्छेद 16 में अवसरों की समान उपलब्धता के लिए सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व को बनाये रखने के लिए  पदों को आरक्षित कर सकता है। प्रत्येक राज्य में  नियमानुसार उपरोक्त व्यवस्था लागू है। फिर भी आरक्षण को लेकर सड़कों पर शोरगुल वास्तव में चिन्तनीय है।                                    आरक्षण का सामाजिक आधार- संविधान निर्माताओं का उद्देश्य यह कदापि नहीं रहा होगा कि आरक्षण का आधार सामाजिक जातीय व्यवस्था को माना जाए। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के कारण अत्यंत पिछड़े एक जाति वर्ग विशेष को जीवन के समान्य स्तर की प्राप्ति हेतु आरक्षण देने की सिफारिश की गयी थी। कालान्तर में पिछड़े से अगड़े वर्ग के समान जीवन स्तर हासिल करने पर भी उस व्यवस्था के प्रति मोहभंग न होने के कारण ही इस व्यवस्था ने जातीय रूप ले लिया है, जो एक स्वस्थ और सौहार्द्रपूर्ण समाज के लिए सर्वथा उपयोगी नहीं कहा जा सकता है।
                   आज इतिहास में पढ़ाया जाता है कि हिन्दू धर्मानुसार समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी। उसी वर्णव्यवस्था का आज भी चलन है। इस वर्णव्यवस्था का हिन्दुओं के किस धर्मग्रन्थ में उल्लेख है? हिन्दुओं का प्रामाणिक धर्मग्रन्थ एकमात्र वेद हैं। वेदों का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता में है। इस आधार पर गीता हिन्दू धर्म का प्रामाणिक धर्मग्रन्थ है।जहाँ तक वर्णव्यवस्था का उल्लेख न तो वेदों में, न उपनिषदों में और न गीता में मिलता है। वर्णव्यवस्था को हिन्दूधर्म की देन कहने वाले सच्चाई जाने बिना  यह विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म को बदनाम करने की साजिश है। मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था का उल्लेख अवश्य मिलता है। जिस मनुस्मृति में इसका उल्लेख मिलता है,वह वास्तविक है।कहना मुश्किल है क्योंकि मनुस्मृति हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं है। मनुस्मृति की भांति पुराण, रामायण, और स्मृति ग्रंथ को हिंदी धर्म का ग्रंथ नहीं माना जा सकता है
गीता ही एकमात्र धर्मग्रंथ है, जो वेदों का सार है। वर्णाश्रम वव्यवस्था किसी काल में जब प्रचलित थी अपने सही रूप में थी। लेकिन अब इसने जाति और समाज का रूप ले लिया है, जो कि अनुचित है। प्राचीनकाल में किसी भी जाति, समूह या समाज का व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास बन सकता था। पहले रंग, फिर कर्म पर आधारित यह व्यवस्था थी, लेकिन जाति में बदलने के बाद यह विकृत हो चली है। राजतन्त्र में राजा अपने राजकाज संचालन के लिए विभिन्न प्रकार के कार्मिकों की नियुक्ति करता था, योग्यतानुसार जो जिस काम के लिए नियुक्त हुआ उसे उसके कर्म के अनुसार जाति विशेष नाम से जाना जाने लगा।जो लोग मनुस्मृति का उल्लेख कर वर्ण व्यवस्था का दोषी हिन्दू धर्म को मानते हैं, उन्हें मनुस्मृति के इस श्लोक को समझना चाहिए।जन्मना जायते शूद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते। -
अर्थात मनुष्य शूद्र (छोटा) के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज (दूसरा जन्म लेने वाला) बनता है। इस द्विज को कई लोग ब्राह्मण जाति का मानते हैं।                           मनुस्मृति का दूसरा वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यत:।' अर्थात ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है,अतः ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।और वीरता क्षत्रिय की पहचान है।
यदि इतिहास का अच्छे से अध्ययन किया जाएगा तो पता चलेगा कि प्राचीन वैदिक काल में कोई भी व्यक्ति जो किसी भी जाति या समाज का हो वह ब्राह्मण बनने के लिए स्वतंत्र था और आज भी यह स्वतंत्र है।
 जो वेदों को मानता था उसे आर्य और जो वेदों को नहीं मानता था उसे अनार्य मान लिया जाता था फिर वह किसी भी जाति समाज या संप्रदाय का हो। आर्य किसी प्रकार की जाति नहीं थीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वालों का समूह था। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ।                                                     आज समाज में जातिव्यवस्था का प्राचीन विकृत रूप लगभग समाप्त हो चुका है।आज उच्च वर्ग निम्न वर्ग के साथ बैठकर भोजन करता है।उनके साथ सामाजिक सरोकार रखता है।प्राचीन समय में जातिवाद का विकृत रूप परिस्थितिजन्य हो सकता है, उसे आधार मानकर आज के समाज में विष घोलना सर्वथा अनुचित है।तीन दशक पहले आरक्षण अपने सही रूप में व्याप्त था। इससे समाज में कटुता  पैदा नहीं होती थी। किन्तु जनसंख्या के बढ़ते और रोजगार के सीमित होते अवसर के कारण ही आरक्षण को जातिवाद से जोड़ दिया गया। आज हर वर्ग को अपने अपने लिए निरन्तर रोजगार के कम होते अवसर की चिन्ता है।अब समय आ गया है सरकार को तथा शीर्ष नेतृत्व को निजस्वार्थ और पूर्वाग्रह त्यागकर ठोस कदम उठाने चाहिए। जैसे-----1- समाज के वास्तविक तथा सुविधाओं से वंचित तबके का ध्यान रखते हुए प्रतिभा को भी समुचित सम्मान देने की आवश्यकता है, जिससे लगातार पलायन करती प्रतिभा को देश व समाज की उन्नति में भागीदार बनाया जा सके।  2- आज लगातार बन्द हो रहे कुटीर उद्योग तथा पैतृक व्यवसाय को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। सरकार को छोटे छोटे उद्योगों के निर्मित माल के विपणन की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।                                 3- पैतृक व्यवसाय प्रोत्साहित करने के लिए इन्हें अपनाने वाले लोगों के लिए सरकार को निश्चित पेंसन की व्यवस्था करनी चाहिए। 4-  सुविधाओं से वंचित सवर्ण से लेकर प्रत्येक वर्ग में हैं।समग्र विकास की अवधारणा पर काम करते हुए जाति के उपनाम के प्रयोग पर रोक लगाकर सरकारी समस्त योजनाए आम जन के लिए लागू की जानी चाहिए।           
5-अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग, और अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग  को मिलाकर एक समग्र जन विकास आयोग के गठन की आवश्यकता है। 6- संविधान की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए आज केवल वंचित दलित वर्ग के लिए ही आरक्षण की आवश्यकता है। इसे समाज हित के लिए पुनः परिभाषित किया जाना चाहिए।                    
  7- प्रमोशन में आरक्षण सहित वरिष्ठता को भी समाप्त करते हुए एक विभागीय परीक्षा कर योग्यतानुसार प्रमोशन की व्यवस्था की जानी चाहिए। 10,20,और 30 साल की सेवा पर वेतनवृद्धि का लाभ सभी को समान रूप से मिलना चाहिए, इससे प्रमोशन न होने पर भी आर्थिक नुकसान नहीं होगा।                                  
      8-  अभी हाल में मोदी सरकार द्वारा सवर्ण वर्ग के अत्यंत गरीब लोगों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण की जो व्यवस्था की है उसे समग्र रूप में लागू किया जाना चाहिए।                          
9- आरक्षित वर्ग के उच्चपदासीन लोगों को स्वेच्छा से आरक्षण त्याग करने की घोषणा कर अनुकरणीय कार्य करना चाहिए।  10- सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक समरसता के लिए सवर्ण वर्ग को जातिवाद के अहं को त्याग कर सामाजिक सदभाव की मिसाल कायम करनी चाहिए। भारत में समय समय पर धर्म को लेकर लड़ाइयां होती रही हैं किन्तु बाह्य संकट के समय धार्मिक मतभेद भूलकर सभी धर्मावलंबियों ने इसकी एकता और अखण्डता के लिये को बचाया है। धार्मिक एकता की ऐसी मिसाल देखकर विश्व भी चकित रह गया। जातिवाद के विकृत रूप को पोषण देकर हैम भावी पीढ़ी को कैसा भारत सौप रहे है इस पर चिन्तन कर सभी वर्ग को निजी स्वार्थ त्याग सामाजिक समरसता का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।ताकि भविष्य भारत की सामाजिक समरसता पर गर्व करे, जैसे आज भी भारतीय संस्कृति पर गर्व किया जाता है।   हमारी सामाजिक एकता इसी संस्क्रुति की देन है।                           
                 
                                          

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