Join Us:
20 मई स्पेशल -इंटरनेट पर कविता कहानी और लेख लिखकर पैसे कमाएं - आपके लिए सबसे बढ़िया मौका साहित्य लाइव की वेबसाइट हुई और अधिक बेहतरीन और एडवांस साहित्य लाइव पर किसी भी तकनीकी सहयोग या अन्य समस्याओं के लिए सम्पर्क करें

मज़हबी मानव

अभिषेक मिश्रा 30 Mar 2023 कविताएँ धार्मिक मज़हबी मानव, कविता 53735 0 Hindi :: हिंदी

हे ! मज़हबी मानव तेरे कितने रूप और रंग 
हम समझ ना पाए तेरे जीवन जीने का ढंग ।
आतंक दंगे-फसाद धर्म की आड़ में आखिर अभी कितने,
न जाने इस आग की आंच में जलेंगे सपने कितने ।
पंथ, धर्म-कट्टरता व मज़हब की आड़ में हे ! मानव,
तू भला इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है दानव ।
तेरे हैं ये रूप अनेक,जिन्हें पहचान न सका कोई एक,
आखिर बता ? ?
मानवता को कब तक करेगा तू शर्मसार, 
ना जाने कितने मनुज काल के मुंह में जाएंगे बेशुमार अफगानी जग में फैला है कैसा मंजर
जो अपने -अपनों के ही पीठ में घोंप  रहे हैं खंजर..l

                                   -अभिषेक मिश्रा (इ.वि.वि)


Comments & Reviews

Post a comment

Login to post a comment!

Related Articles

शक्ति जब मिले इच्छाओं की, जो चाहें सो हांसिल कर कर लें। आवश्यकताएं अनन्त को भी, एक हद तक प्राप्त कर लें। शक्ति जब मिले इच्छाओं की, आसमा read more >>
Join Us: