मानव वही है सत्य में,जिसका हृदय विकराल है।
मानव वही है सत्य में,जो निर्बलों का ढाल है।
परहित मनुज का धर्म है,सेवा ही उत्तम कर्म है,
जिसमें भरी है क्रूरता,वो नर नहीं कंकाल है।
मानव वही है…..
अन्याय दुर्बल क्यों सहे,परदुख में नर क्यों चुप रहे,
धन दूसरों का लूटे वो,निर्धन से भी कंगाल है।
मानव वही है…..
निर्धन को देता दान है,वह मानवों में महान है,
वह नर नहीं नर के लिए,जो बुनता भय जाल है।
मानव वही है…..
परहित में ही जो लिप्त है,जो स्वयं में संतृप्त है,
उसके लिए एक बूंद भी, जल का समुद्र विशाल है।
मानव वही है…..
Please like this poem
very good poem
This is so nice poem