REETA KUSHWAHA 30 Mar 2023 कविताएँ राजनितिक कुछ कहते नही बनता 15510 1 5 Hindi :: हिंदी
क्या कहूं कुछ कहते नही बनता वादे कुछ ऐसे होते है हमारी सरकारों के, कोशिश बहुत करते है बेचारे,पर इनसे निभाते नही बनता। क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। न जाने कितने आश लगाए है इन वादों के चक्कर में आश ले डूबी है न जाने कितनों की जीवनलीला गिनती करू तो गिनते नही बनता क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। कितने ही विवादों को पैदा कर रखा है हुक्मरानों ने कुर्सी और आमदनी के मुद्दे खत्म न हो जाएं इसलिए इनसे विवाद सुलझाते नही बनता क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। सभी पिस रहे है जाति, धर्म, ऊंच नीच की आग में और कहीं ये आग ठंडी पड़ने लग जाएं तो हुक्मरानों का हाजमा नही बनता क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। नौकरशाही और सरकारें लालची हो गई है इतनी पोल खुलते ही अधर में लटक जाती है भर्तियां किसी भी महकमे में ईमानदारी से कोई ठिकाने नही लगता क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। कितना गिर गए है ये सत्ताधारी 'फूट डालो राज करो' को मूल मंत्र बना रखा है इसके अलावा शासन चलाने का इन्हें कोई रास्ता नही दिखता क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। जनता जाए तो कहां जाएं एक ही थाली के चट्टे-बट्टे है सब इनमें कोई दूध का धुला नही मिलता क्या कहूं कुछ कहते नही बनता। ✍️ रीता कुशवाहा
1 year ago