DINESH KUMAR KEER 31 Dec 2023 कविताएँ समाजिक 1700 0 Hindi :: हिंदी
एक़ अक्ष सा दिखता है, एक़ ही शख़्स सा दिखता है, जहाँ जाता हूँ, लोग मुझमें आपको देखतें हैं, आपकी पहचान बताते हैं, तुम पापा जैसे दिखते हो, वैसे ही बात करते हो, वैसे ही इज़्ज़त करते हो, तुम्हारे अल्फ़ाज़ों में उनकी झलक है, ग़ुरूर में उनका नूर है, तुम्हारे व्यक्तित्व का कुछ वही सुरूर है, पर ये वक़्त कैसे बदलता है, एक़ पिता ही है; जो इस तरह ज़ीता है कि ना होकर भी अपने बच्चों में ज़िंदा रहता है, और ख़ुदा भी देखो कैसे ख़ेल ख़ेलता है, कैसी तक़दीरें लिखता है, वैसे भी क़ोई फ़र्क नहीं पड़ता उसके इरादों से, मुझमें तों बस एक़ अक्ष दिखता है, अब एक़ ही शख़्स दिखता है... हँसते रहते हो “कीर साहब ज़ी” क्या बात है... बस कुछ ख़ास नहीं, बच्चों को मिठाई देकर आया हूँ... कल से एक अलग नया साल शुरू हो जाएँगा... मेरे प्यारे पापा जी... -दिनेश कुमार कीर