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शिक्षा का बोझ-समाज व सरकार को सोचने की ज़रूरत है

Santosh kumar koli 22 Oct 2023 कहानियाँ समाजिक शिक्षा का बोझ 10751 0 Hindi :: हिंदी

मेरे ठीक सामने एक परिवार रहता है, इस परिवार में अनिल, उसकी पत्नी निशा, माता-पिता और एक मात्र पुत्र जो अभी 5-6 साल का ही है प्यार से सब उसे पिट्ठू कहते हैं, शामिल हैं।
अनिल एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर कार्य करते हैं, अच्छा- खासा वेतन पाने के कारण अपने परिवार पर अच्छा -खासा ख़र्च भी कर पाते हैं। परिवार में ख़ासकर पुत्र पर सैन्य अनुशासन क़ायम है थोड़ा सा भी इधर-उधर होने पर "यहां आ, गंदा मत हो, बाहर क्यों गया?" आदि नकारात्मक शब्द परोसे जाते हैं।
एक दिन जैसा कि बच्चे की पैदायशी प्रवृत्ति होती है, दादा के पास जाकर कहानी सुनने की ज़िद करने लगा, निशा को पता चलते ही वह वहां पहुंची बच्चे को घसीटकर वर्षा समाप्ति के संकेत पर जैसे बिजली कड़कती है, कड़कते हुए बोली, "चल यहां से, कितनी बार समझाया, आया बड़ा कहानी सुनने वाला!"
पिट्ठू दादा -दादा करता रहा दादा अपनी लाचार, कातर एवं बूढ़ी आंखों से ताकता रह गया उसकी लाचार आंखें बच्चे की लाचार आंखों को समझ गईं उसकी बूढ़ी आंखों से अनायास ही आंसू ढलक गए।
निशा की सोच थी कि ये पुरानी सोच के बूढ़े लोग नई पीढ़ी को बिगाड़ देंगे। ख़ैर.. पिट्ठू का गांव की एक अच्छी,  यहां मैं अच्छी की ज़्यादा स्पष्ट व्याख्या नहीं करना चाहता, निजी स्कूल में दाख़िला करवा दिया गया।
उसे सुबह जल्दी उठाकर, टिफिन लगाकर, स्कूल के लिए तैयार किया जाता तथा न चाहते हुए भी बस से स्कूल भेजा जाता। कभी-कभी हड़बड़ाहट में वह बिना कुछ खाए ही स्कूल चला जाता, हालांकि वह टाटा, बाय-बाय की सारी औपचारिकताएं पूरी करता।
वह स्कूल में अनमना रहता उसे घर की याद सताती, उम्र जो नहीं थी इस बोझ को ढोने की!
टिफिन जैसे जाता वैसे ही आता, पड़ोस में खेलते हुए बच्चों को वह ललचायी नज़रों से ताकता। शाम को वह थका- मांदा मुंह लटकाकर, भारी -भरकम पिट्ठू उठाए घर आता, हालांकि सुरक्षा के मध्यनज़र बस से घर लाने के लिए निशा खुद जाती।
बच्चा घर जाकर बस्ते को पलंग पर, जो कि बरामदे में स्थायी बिछा हुआ था, डाल देता। सुसताने के लिए पलंग पर लेट जाता, कब नींद आ जाती उसे पता ही नहीं चलता? मां बड़े प्यार से जूते, जुराब उतारती, कपड़े बदलती, और खाना खिलाकर सुला देती। थोड़े समय बाद ही मां उसे जगाती काफ़ी झंझोड़ने के बाद वह जागता, पलंग पर बैठे-बैठे झोंके खाता पर मम्मी उसे ट्यूशन के लिए भेजकर ही मानती। बच्चा ट्यूशन पढ़ता, गृह कार्य लेकर आता मम्मी जिसे हमेशा होमवर्क ही कहती थी घर जाकर ट्यूशन का गृह कार्य, स्कूल का गृह कार्य करता।
हालांकि गृह कार्य पूरा करने में पूरा परिवार पूरे मनोयोग से पूरा सहयोग करता सिवाय दादा -दादी के। बिन गृह कार्य खाना नहीं, दादा-दादी के पास जाना नहीं। इस नियम का सख़्ती से पालन करना होता और इसका अवलोकन निशा स्वयं करती। हालांकि अनिल का मन कभी-कभी पसीज   जाता पर उसे मजबूरन निशा का साथ देना होता। बच्चे के भविष्य का मामला जो था!
बच्चा अंग्रेजी के कुछ शब्द डेडी, मम्मी हाय, हेलो आदि सीख गया, माता-पिता खुश। जब भी पड़ोसी, रिश्तेदार मिलने आते अनिल कहता, "निर्मल जी आपने अपने बच्चे का दाखिला कहां करवाया" निर्मल कुछ कहता उसे पहले ही अनिल, "देखो हमारे बच्चे को" बच्चे को आवाज़ लगाई जाती, बच्चा सहमा हुआ, मुंह में उंगली -सी डाले हुए ऊपर- नीचे मुंह करता हुआ पेश होता और उन शब्दों का प्रदर्शन करता। आगंतुक और अच्छे से अध्ययन करने की मुफ़्त सलाह देकर निकल लेते। किसी ने भी बच्चे को यह नहीं पूछा कि तुम कब व किसके साथ खेलते हो? कहां खेलते हो? खेलते भी हो या नहीं? तुम्हें क्या पसंद है? स्कूल से घर, ट्यूशन, गृह कार्य फिर स्कूल बच्चा मशीनी दिनचर्या में पिस रहा था। 5- 6 साल की उम्र, पिट्ठू पर पिट्ठू, गले में बोतल, आंखों पर नज़र का चश्मा, दिखावे के जूते, टाय बच्चा रोबोट से कम नहीं लगता। वर्मा जी का बच्चा डॉक्टर बन गया, धर्मा जी का अमेरिका पढ़ता है, उठते -बैठते, खाते -पीते हर वक़्त पढ़ाई का जुमला बच्चे को कचोटता। बच्चा चिड़चिड़ा हो गया किसी भी काम के लिए कहते तो वह घबराया हुआ कहता, "नहीं मम्मी टीचर पीटेंगी" ये शब्द दिन में कई बार उसके मुंह से अनायास निकल पड़ते।
हालांकि वह ए-बी-सी-डी वाली मैडम की प्रशंसा भी करता था। अब तो आलम यह था कि बच्चे को नींद में भी स्कूल बस का होर्न सुनाई देने लगा, वह ठीक से सो नहीं पाता शिक्षा भय उसके दिमाग़ में पूरी तरह घर कर गया। उसका बचपन खो गया। इस घटना से मेरे दिमाग़ में एक प्रश्न उठ रहा है कि हम नई पीढ़ी को कौनसी शिक्षा दे रहे हैं? उसको किस दशा वह दिशा में ज़बरदस्ती धकेल रहे हैं। जो उम्र खाने -पीने, खेलने- कूदने अर्थात् सर्वांगीण विकास की है उस उम्र में शिक्षा व बस्ते का बोझ हम देश रूपी चमन के लिए किस प्रकार की पौध तैयार कर रहे हैं, इसके बारे में समाज व सरकार को सोचने की ज़रूरत है।

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