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मजदूर हूं पर मजबूर नहीं-पत्थर तोड़ता हूँ पर दिलों को जोड़ता हूँ

Onkar Verma 29 Jan 2024 कविताएँ समाजिक Poem of Social issues, 1821 0 Hindi :: हिंदी

मजदूर हूं पर मजबूर नहीं

मजदूर हूँ  पर मजबूर नहीं
पत्थर तोड़ता हूँ 
 पर दिलों को जोड़ता हूँ 
जाड़े की ठण्ड में ठिठुरता हूँ 
तपती धूप में झुलसता हूँ 
सब कुछ सहता हूँ 
 फिर भी खुश रहता हूँ …….
दो  वक़्त की खाता हूँ 
कभी बिन खाये भी सो जाता हूँ 
कोई भय नहीं
कोई डर नहीं
कुछ पाने की चाह नहीं 
कुछ खो जाने की  आह नहीं 
अपने मन की करता  हूँ 
किसी से  नहीं जलता हूँ 
लोगों के लिए महल बनाता हूँ 
कई रंगों से सजाता हूँ 
अपना तो फुटपाथ ही महल है
सड़क ही बिस्तर है
जहाँ रात हो जाये
वहीं सो जाता हूँ …………………
अपनी छत भी बहुत बड़ी है 
जैसे खुदा ने छतरी तनी है 
चाँदनी रात  में 
तारों की बारात में  
प्रकृति की इस अद्भुत रचना में खो जाता हूँ 
पता ही नही चलता कब सो जाता हूँ ……………….
कभी जब अंधेरी रात होती है 
तूफान और बरसात होती है 
काले घने बादल डराते हें 
जब उमड़ उमड़ कर आते हें 
कभी  - कभी मन डर जाता है 
दिल सहम सा जाता है 
कोन देखेगा मेरे आंसु इस बरसात में 
यह सोच चुपके से रो लेता हूँ 
ऐसे हालात में भी सो लेता हूँ …………………
मजदूर हूँ पर मजबूर नहीं 
ये मेरी हकीकत है कोई फितूर नहीं 
मैं मजदूर हूँ पर मजबूर नहीं 
वो महलों में सोते हैं 
हम सड़कों पे सोते हैं 
मखमल के बिस्तर जरूर हें उनके 
पर नींद कोसों दूर है उनके 
नर्म बिस्तर भी उन्हें आराम कहाँ देता है 
मजदूर का क्या है 
वो तो   फुटपाथ पर भी सो लेता  हैं ……………
मिट्टी में मुझे रहना है 
पसीना मेरा गहना है 
क्या करूँ उन कपड़ों का 
तन भी जिसमे दिख जाए 
क्या करूँ  उस दौलत का 
घर की मर्यादा भी जिसमें  बिक जाए,
अपनी तो दौलत 
ईमानदारी और सच्चाई है 
मजदूर हैं हम तो 
बस यही हमारी कमाई है ………………
जिस दिन में रुका 
दुनिया रुक जाएगी,
बना लेना नोटों के महल ओर सड़कें फिर
थम जाएंगे पहिये जब 
मजदूर ही याद आयेगा 
लाखों मशीनें बना ले इंसान ,
मेरी जगह नहीं भर पाएगा ,
ये हकीकत है कोई फितूर नहीं ,
मैं मजदूर हूँ पर मजबूर नहीं ……………….

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