Santosh kumar koli 03 Aug 2023 कविताएँ समाजिक तृष्णा 7785 0 Hindi :: हिंदी
संतप्त जग में तृष्णा, संसक्त हर मन में। डाह, श्रांति विचरते, हर तप्त तन में। व्याकुल, व्यथित मन संतृप्ति, ढूंढता शहर, कानन में। आग से बुझाता आग, मर्ज़ मन में, दवा डालता तन में। न मापक, न मात्रक, न सीमा, नहीं पारापार। ठहरे हुए पानी में, एक कंकड़ की दरकार। मन पक्षी उन्मुक्त उड़े, न ठिकाना, नहीं घर- बार। तृप्ति से नहीं तृष्णा मरती, उपजे गुल्म हज़ार। काश! मन के मन को, कोई मन से समझाता। आग विरह की कैसे बुझे, जब वारि से बुझाता? मन की तृष्णा मन से मरती, क्यों मन को भटकाता? मन की तृष्णा, मन से मारे, वही बुद्ध कहलाता।