हर जगह मैं ढूंढता हूँ पर नहीं दिखता है गाँव
हैं बहुत ऊँचे मकाँ, अब घट रही पेड़ों की छाँव
खो गईं पगडंडियाँ, भटका रही नूतन सड़क
मैं चलूँ अब किस दिशा, कोई बता दो मुझको ठाँव
पाँव के नीचे ज़मीं जिनके खिसकती जा रही
झूमते फिर भी नशे में, लड़खड़ाते उनके पाँव
बंद मुट्ठी सामने लहरा रहा है रोज़ वह
और बेसुध हम लगाते जा रहे हैं खुद पे दाँव
चीख़ हो या हो हँसी, रहती है किसको अब ख़बर
ये बदलाव है “आशु”, हो शहर या फिर कोई गाँव
आशुतोष पांडेय